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________________ इच्छा करने न करनेका महत्त्व १०७ - अर्थ-मैं ऐसैं मानौ हौं जो याचकका गौरव है सो दातारविर्षे संक्रमणरूप भया। जो ऐसे न होइ अन्यथा होइ तौ तिस याचनाके काल विर्षे याचनारूप अर देनेरूप है अवस्था जिनकी ऐसैं ए दोऊ बड़ा अर छोटा कैसे हो हैं। भावार्थ-उत्पेक्षा अलंकार करि आचार्य कहै हैं:-हमकौं ऐमा भासै है जो पहलें तौ दोउ पुरुष समान थे । बहुरि जिस समय याचक याचना करै अर दातार देवै तिस समय याचकका बड़ापना था सो निकसि दातार विष प्राप्त होइ गया । तातें तत्काल याचक तौ हलका हो है अर दातार महंत हो है। जो ऐसैं न हो तौ तिस समय याचक तौ संकोचादिक रूपकरि हीन कैसैं भासै है, अर दातार प्रफुल्लितादि रूपकरि महंत कैसैं भासै है। तातें दीनपनां निषिद्ध है । कोउ कहै कि ऐसें है तो मुनि भी तौ दान लेवै है, उनकौं भी हीन कहौ । ताका उत्तर-मुनि है ते याचना करि दीन होइ दान नांही लेवै हैं। जैसे कोई राजानिकी भेट करै तैसैं भक्त पुरुष विनयस्यों दान देवै है। तहां भी लोभतें आसको होइ ग्रहण नांही करै है, ता” यह हीन नांही होवै है। लोभतें दीनताकरि लियो चाहै सो ही पुरुष हीनताकौं प्राप्त होइ है। आगें लेनेवालेका अर देनेवालेका गतिविशेष दिखावता सूत्र कहै हैं अधो जिघृक्षवो यान्ति यान्त्यर्ध्वम जिघक्षवः। इति स्पष्टं वदन्तौ वा नामोन्नमौ तुलान्तयोः ॥१५४॥ अर्थ-जिनक ग्रहण करनेकी इच्छा पाइए है ऐसे जीव हैं ते अधोगतिकौं प्राप्त हो हैं। बहुरि जिनकै ग्रहण करनेकी इच्छा नांही ऐसे जीव हैं ते ऊर्द्धगतिकौं प्राप्त हो हैं। सो ऐसेः-ताखडीके दोय पाल. तिनिका नीचा होना ऊंचा होना ते मानौं स्पष्ट प्रगटपने कहै हैं। भावार्थ-ताखडीके दोय पालडे समान हैं, तहां जो अन्य वस्तुका ग्रहण करै सो तौ नीचा होइ जाय, अर न ग्रहण करै सो ऊँचा हो जाय । ए ऐसे होते संतै मानू यह बतावै हैं:-जैसैं हमारी दशा हो है तैसैं जो लोभकरि ग्रहण करैगा सो तो तत्काल भी नीचा होइगा, अर आगामी नरकादिक नीची गतिकौं प्राप्त होगा ।२ अर जो लोभ छोरि ग्रहण न करेगा सो तत्काल भी ऊँचा रहेगा, अर आगामी स्वर्ग मोक्ष ऊँची गतिकौं प्राप्त होगा । ऐसें युक्तिकरि यहु प्रयोजन दिखाया दीनताकरि हीनता अर दुर्गति १. अन्यथा न होइ १५३.६ २. नीची गतिकौं प्राप्त होगा । ऐसें युक्तिकरि यहु. ज. १५४.२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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