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आत्मानुशासम
स्त्रीनिके किंकर है, अर तूं तिनका त्यागी भया है सो तेरै भ्रष्ट करनेकों ते स्त्री कारण होइ रही है, सो तूं उनका विषय गोचर मति होहु । मोक्ष मार्गविषै स्त्री निकै वशीभूत होनां सोई बड़ा उपद्रव है ।
शार्दूल छन्द
क्रुद्धाः प्राणहरा भवन्ति भुजगा दष्ट्वैव काले क्वचित् तेषामौषधयश्च सन्ति बहवः सद्यो
विषव्युच्छिदः ।
हन्युः स्त्रीभुजगाः पुरेह च मुहुः क्रुद्धाः योगीन्द्रानपि तान्निरौषघविषा दृष्टाश्र
प्रसन्नास्तथादृष्ट्वापि च । १२७ ।
अर्थ-सर्प हैं तौ क्रोधवन्त भए कोई कालविषै डसिकरि ही प्राणानि - के हरनहारे हो हैं । बहुरि तत्काल विषको दूरि करें ऐसे तिनके औषध पाइए है । बहुरि ए स्त्रीरूपी सर्प हैं ते क्रोधवन्त भए भी बहुत अर प्रसन्न भ भी परलोकविषै अर इस लोकविषै बारम्बार तिनि योगीश्वरनिकौं भी देखे हुए भी वा देखिकरिकै भी ह हैं - घाते हैं । कैसे हैं स्त्रीरूप सर्प औषधि रहित हैं विष जिनिका ऐसे हैं ।
भावार्य - लोकविषै सर्पकौं अति अनिष्ट जानि तिसितें डरिए है । अर स्त्रीनिकौ अति इष्ट जानि इनिका विश्वास करिए है । सो इहां स्त्रीनितें राग छुडाव आथिए सर्पतें भी स्त्रीनिकै अधिकता दिखाईए है । सर्प तो क्रोधवन्त हुवा ही मारै । स्त्री क्रोधवन्त हुई तो कोई उपायकरि जर प्रसन्न हुई आकुलता बधाईकरि जीवकौं हनै है । बहुरि सर्प तो कोई एक कालविषै मारै, स्त्री इस लोक अर परलोकविषै बारम्बार मरण करावै । बहुरि सर्प तो सिकार ही प्राणनिकों हरे है, स्त्री देखी हुई ही वा आप देखि करि भी जीवका घात करे । बहुरि सर्पके विष दूर करनेकूं तो अनेक औषधि हैं, स्त्रीनितें भया कामसन्ताप ताका कोई औषध ही नांही । ऐसें स्त्रीरूप सर्प मोक्षमार्गीनिक भी भ्रष्ट करे हैं, तातै इनका विश्वास करना नांहीं ।
शार्दूल छन्द एतामुत्तमनायिकामभिजनावर्ज्या जगत्प्रेयसीं मुक्तिश्रीललनां गुणप्रणयिनीं गन्तु तवेच्छा यदि । तां त्वं संस्कुरु वर्जयाम्यवनितावार्तामपि स्फुटं तस्यामेव रतिं तनुष्य नितरां प्रायेण सेर्ष्याः स्त्रियः ।। १२८ ।।
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