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अशुभसे शुभ, शुभसे शुद्ध होनेका क्रम नियम ८३ अशुभाच्छुभमायातः शुद्धः स्यादयमागमात् । रवेरप्राप्तसंध्यस्य तमसो न समुद्गमः ॥१२२।।
अर्थ-यहु जीव आगमज्ञानतें अशुभतें छुटि शुभकौं प्राप्त होता शुद्ध होइ । इहां दृष्टान्त जो नाहीं प्राप्त है संध्या अवस्था जाकै ऐसा जो सूर्य ताकौं अन्धकारका प्रकटपना न हो है। ___ भावार्थ-जैसे संध्यासम्बन्धी लालीकौं न प्राप्त होता सूर्य ताकै अन्धकारका प्रगटपना न हो है तैसैं अशुभ रागरहित आत्मा है सो क्रमतै शुभरागरूप होइ शुद्ध केवलदशाकौं प्राप्त हो है ताकै अज्ञानादिकका उपजना न हो है।
आगै इहां प्रश्नः--जो ज्ञानआराधनारूप परणम्या जीवकै तप शास्त्रादिविर्षे शुभरूप अनुरागतँ सरागीपनां हो है । तातै मुक्तपनौं कैसै होइ ऐसी आशंका करि उत्तर कहै हैं--
विधूततमसो रागस्तपाश्रतनिबंधनः। ..
सन्ध्याराग इवार्कस्य जन्तोरभ्युदाय सः ॥१२३॥ अर्थ-रि किया है अज्ञान अंधकार जानैं जैसा जीव ताकै तप शास्त्रादिकसंबंधी रागभाव है सो कल्याणका उदय ही कै अथि है । जैसे सूर्यकै प्रभात संध्यासम्बन्धी रक्तता है सो उदयकै अर्थि हैं तैसें जानना।
भावार्थ-जैसै सूर्यकै जैसी अस्त समय संध्याविर्षे लाली हो है तैसी ही प्रभात समय संध्याविर्षे लाली हो है । परन्तु प्रभातकी लालीमें अर संध्याकी लालीमें एता भेद है जो प्रभात समयविर्षे रात्रीसंबधी अंधकारका नाशिकरि संधीविषे जो लाली भई सो आगामी सूर्यका शुद्ध उदयकौं कारण है। तैसै जीवकै जैसा विषयादिविर्षे राग हो है तैसा ही तप शास्त्रादिवि राग हो है। परन्तु तप शास्त्रादिकवि मिथ्यात्वसंबंधी अज्ञानका नाशकरि संधि विषै जो राग भया है सो आगामी जीवका शुद्ध केवलदशारूप उदयको कारण है।
आगें इसतै विपरीत जो राग तिसविर्षे दोषकौं दिखावता सूत्र कहै हैंविहाय व्याप्तमालोकं पुरस्कृत्य पुनस्तमः । रविवद्रागमागच्छन् पातालतलमृच्छति ॥१२४॥ अर्थ-जीव है सो सूर्यवत् व्याप्त भया प्रकाशकों छोरि बहुरि अधकारको अग्रगामीकरि रागभावको प्राप्त होत संता पाताल तलकों प्राप्त हो है।
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