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________________ आत्मानुशासन निपजै । तातें ऐसेहीकरि उस कांठका ऐसे ही सफल करना योग्य है। तैसे मनुष्यपर्यायके बीचि-बीचि तो अनेक आपदा पाइए है, तहाँ सुख नाहीं । बहुरि अन्तविर्षे वृद्ध अवस्था है तहां सुखका स्वादु नाहीं। बहुरि आदिवि बाल अवस्था है, तहां सुख होता नाहीं। बहुरि मध्य अवस्थाविर्षे सर्वत्र क्षुधा, पीडा, चिन्ता आदि रोगनिकरि हृदयविर्षे छेद परि रहे, तहां भी सुख रह्या नाहीं। ऐसे यह मनुष्य पर्याय नाममात्र ही तो भला है । बहुरि सर्व प्रकार असार है । विषय सुख भोगवने योग्य नाहीं । बहुरि जो इस मनुष्य पर्यायकों धर्मसाधनकरि परलोकका बीज करै तौ ताकरि बहुत स्वर्ग मोक्षके सुखरूप मीठे फल निपजै, ता” इस मनुष्य पर्यायकों ऐसैं हो सफल करो, यहू शिक्षा माननी योग्य है। ___ आगें ऐसे मनुष्य पर्यायके शरीरविर्षे तिष्ठता आत्मा कहा करै है सो कहै हैं अनुष्ठप छन्द प्रसुप्तो मरणार का प्रबुद्धो जीवितोत्सवम् । प्रत्यहं जनयत्येष तिष्ठेत् काये कियच्चिरम् ।।८२।। अर्थ-यहु आत्मा दिनप्रति सूता हुआ तौ मरणकी आशंका उपजावै है अर जाग्या हुआ जीवनेका उत्सवको उपजावै है ऐसी जाकी दशा सो यह जीव शरीरविर्षे कितनैकचिरकाल पर्यन्त तिष्ठै, अपि तु न तिष्ठ। ____ भावार्थ-यहु जीव सोनै तब तो मृतकसदृश होइ जाइ अर जागै तब जीवता होइ, ऐसे याकी प्रतिदिन दशा हवा करै, तौ जैसैं जो नित्य छिपै ताके भागनेका भरोसा नाहीं तैसैं याका शरीरविर्षे रहनेका भरोसा नाहीं । शीघ्र ही शरीरको छांडेगा ऐसा निश्चयकरि करना होइ सो कार्य करि लैना। आगै ऐसे शरीरकै आत्माका उपकार करनेका अभाव कहि करि अब कुटंवानकै आत्मउपकार करनेका अभाव कहता सूत्र कहै हैं वसन्त तिलका छन्द सत्यं वदात्र यदि जन्मनि बन्धुकृत्यमाप्तं त्वया किमपि बन्धुजनाद्धितार्थम् । एतावदेव परमस्ति मृतस्य पश्चात् संभय कायमहितं तव भस्मयन्ति ।।८३।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004018
Book TitleAtmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1983
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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