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वैराग्य सुखका कारण है
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भावार्थ - मानव-जन्मका मिलना बड़ा ही कठिन है । ऐसे नरजन्मको पाकर वह उपाय अवश्य करना योग्य है जिससे धर्मध्यान हो सके, आत्मानन्द मिल सके और भावी जीवनमें उत्तम पद प्राप्त हो। इसलिए द्रव्योपार्जन करने और भोग भोगनेका साधन जो गृहस्थ जीवन है उसका त्याग किया जावे, कुटुम्ब परिवार तथा मित्रादिसे स्नेह तोड़ दिया जाये, पूर्ण वैराग्यवान होकर निश्चिन्तताके साथ निज आत्माका ध्यान किया जावे । धर्मध्यान सातवें गुणस्थान तक हो सकता है सो आजकल संभव है । इसलिए त्याग-भाव धारणकर आत्मध्यानका अभ्यास करना योग्य है । कथं ते भ्रष्टसवृत्ता 'विषयानुपसेवते । पञ्चधाऽन्तरिता तेषां नरके तीव्रवेदना ॥१३०॥
अन्वयार्थ - (ते भ्रष्टसद्वृत्ता कथं पञ्चधा विषयान् उपसेवते) वे सच्चारित्रसे भ्रष्ट होकर क्यों पाँच प्रकारके विषयोंका बारबार सेवन करते हैं ? क्योंकि (अन्तरिता) पश्चात् -विषयोंके सेवनके बाद (तेषां नरके तीव्रवेदना) उन्हें नरकमें तीव्र वेदना भोगनी पडेगी ।
भावार्थ- इन्द्रियभोगोंकी लोलुपता कृष्ण-नील कापोत लेश्या सम्बन्धी परिणामोंकी उत्पत्तिका बीज है । जिन भावोंसे जीवोंको नरकायुका बंध हो जाता है, नरकमें जाकर तीव्र वेदना सहनी पडती है, उनको समझकर भी जीव इन्द्रियोंके विषयोंके भीतर बारबार अनुरक्त होकर अपनी आत्माका शोधन नहीं करते और परम पवित्र जैनधर्मका भी साधन नहीं करते यह बड़े आश्चर्य की बात है !
सद्वृत्त भ्रष्टचित्तानां विषयासङ्गसङ्गिनाम् । तेषामिहैव दुःखानि भवन्ति नरकेषु च ॥१३१॥
अन्वयार्थ- (सवृत्तभ्रष्टचित्तानां ) जिनका मन सम्यक्चारित्रसे भ्रष्ट हो गया है (विषयासंगसंगिनाम्) तथा जो इन्द्रियोंके विषयोंमें मगन हैं ( तेषां इहैव दुःखानि ) उनको यहाँ भी दुःख होते हैं (नरकेषु च ) तथा मरनेके पीछे नरकोंमें जाकर घोर वेदना सहनी पडती हैं ।
भावार्थ- जो सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्रके मार्गसे विमुख होकर मिथ्यात्वकी कीचमें पडकर रातदिन इन्द्रियोंके विषयमें तल्लीन रहते हैं वे यहाँ भी इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग, पीडा- चितवन और निदान बंध, ये चार आर्तध्यानसे दुःखित रहते हैं, तृष्णाकी दाहसे जलते रहते हैं तथा पीछे पाठान्तर - १. विषयानुपभुञ्जते ।
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