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________________ सारसमुच्चय __अन्वयार्थ-(कर्माराति जिघृक्षुभिः) कर्मरूपी शत्रुओंको पकडनेकी इच्छा करनेवाले (बुधः) बुद्धिमानको (भव-भोग-शरीरेषु) संसार, भोग और शरीरमें (निर्वेदः) वैराग्य (परया बुद्ध्या) बड़ी बुद्धिमानीके साथ (सदा भावनीयः) सदा मनन करना चाहिए। __भावार्थ-कर्मोंको जीतनेका उपाय वैराग्यभाव है, क्योंकि रागभाव ही कर्मोंके बंधका मूल कारण है । इसलिए वीर संतोंको कर्मोंपर विजय पानेके लिए बड़ी बुद्धिमानीके साथ बारबार यह मनन करना चाहिए। संसार असार है । चारों ही गतियोंमें जीवोंको दुःख है । अज्ञानीको कहीं भी सुखशान्ति नहीं मिल सकती है। यह शरीर क्षणभंगुर है, अत्यन्त अपवित्र है। इससे छूटना ही हितकर है। इन्द्रियके भोग अतृप्तिकारी हैं, तृष्णाके बढ़ानेवाले हैं और विष-समान आत्मघातक हैं । जब शरीर-भोगोंसे वैराग्य भाव होगा तब ही मोक्षमार्गमें प्रेमभाव होगा। यावन्न मृत्युवज्रेण देहशैलो निपात्यते । नियुज्यतां मनस्तावत् कर्मारातिपरिक्षये ॥१२८॥ अन्वयार्थ-(यावत्) जब तक (देहशैलः) यह शरीररूपी पर्वत (मृत्युवज्रेण) मरणरूपी वज्रसे (न निपात्यते) नहीं गिराया जावे (तावत्) तब तक (कर्मारातिपरिक्षये) कर्मरूपी शत्रुओंके नाश करनेमें (मनः नियुज्यतां) मनको लगाना चाहिए । भावार्थ-वीर योद्धा उस समय तक बराबर प्रयत्नशील रहता है जब तक कि अपने शत्रुका जडमूलसे नाश नहीं कर डालता। इसी न्यायसे कर्मरूपी शत्रुके क्षयके लिए ज्ञानीको निरंतर अपना मन लगाना चाहिए, तथा ऐसा आत्मध्यानका अभ्यास करना चाहिए जिससे वीतरागता प्रकट होवे, क्योंकि वीतरागभाव ही कर्मोंके विनष्ट करने में कारण हैं । वह काम जितना शीघ्र हो, कर लेना चाहिए । मानव देहमें ही कर्मोंका क्षय हो सकता है । मरणके आनेका निश्चय नहीं है अतएव मरण आनेके पहले ही शीघ्रसे शीघ्र जो कुछ अपना आत्महित बन सके, कर लेना चाहिए। त्यज कामार्थयोः सङ्गं धर्मध्यानं सदा भज । छिद्धि स्नेहमयान् पाशान् मानुष्यं प्राप्य दुर्लभम् ॥१२९॥ अन्वयार्थ-(दुर्लभम् मानुष्यं प्राप्य) इस दुर्लभ मानव-जन्मको पाकर (कामार्थयोः सङ्गं त्यज) तू कामभोग और द्रव्य विभूति अथवा परिग्रहका ममत्व छोड (स्नेहमयान् पाशान् छिद्धि) स्नेहमयी जालोंको छेद (धर्मध्यानं सदा भज) और धर्मध्यानका सदा सेवन कर । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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