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________________ सारसमुच्चय धर्मामृतं सदा पेयं दुःखातङ्कविनाशनम् । यस्मिन् पीते परं सौख्यं जीवानां जायते सदा ॥६३॥ अन्वयार्थ-(दुःखातङ्कविनाशनम्) दुःखरूपी रोगोंके नाश करने वाले (धर्मामृतं) धर्मरूपी अमृतको (सदा पेयं) सदा पीना चाहिए (यस्मिन्) जिसके (पीते) पीनेसे (जीवानां) जीवोंको (सदा) सदा (परं सौख्यं) उत्तम सुख (जायते) होता है। ____ भावार्थ-संसार दुःखोंसे भरा है। जिस जीवको संसारके दुःखोंका रोग पीडित कर रहा है उसके लिए यही उचित है कि धर्मरूपी अमृतका पान करे । यही परम औषधि है जो सेवन करते हुए भी मीठी है और जिससे सर्व दुःखोंका अन्त सदाके लिए हो जाता है। जैसे अमृत तुर्त मिष्टता देता है, शरीरको नीरोगी बनाता है वैसे यह आत्मानुभवरूपी अमृत उसी समय आत्मानन्द देता है और उन कर्मोंका नाश करता है जो संसारमें दुखफलको देनेवाले हैं। अतएव जन्म जरा मरणादि भयानक कष्टोंसे सदाके लिए छुट्टी पानेके लिए विवेकी जीवको पुरुषार्थ करके ध्यान, स्वाध्याय, भक्ति, तपादि द्वारा मनको निश्चल कर अपने ही आत्माके शुद्ध स्वरूपका मनन करना चाहिए। धर्म सुखकारी व तारक है स धर्मो यो दयायुक्तः सर्वप्राणिहितप्रदः । स एवोत्तारणे शक्तो भवाम्भोधौ सुदुस्तरे ॥६४॥ अन्वयार्थ-(यः दयायुक्तः) जो दयाभावसे पूर्ण है (सः) वही (सर्वप्राणिहितप्रदः) सर्व प्राणीमात्रका हितकारी (धर्मः) धर्म है, (सः एव) वही धर्म (सुदुस्तरे) अत्यन्त कठिनतासे तरने योग्य (भवाम्भोधौ) इस संसारसमुद्रसे (उतारणे) पार उतारनेमें (शक्तः) समर्थ है। ___ भावार्थ-धर्म उसे कहते हैं जो जीवोंको संसारसमुद्रमें डूबनेसे बचाये तथा जो सदा उत्तम सुख देवे । ऐसा धर्म वही है कि जो यह सिखाता है कि सर्व प्राणीमात्र पर दयाभाव रक्खो, किसीको कष्ट न दो, अपने आत्माको व परके आत्माको कभी न सताओ। ऐसा विश्व प्रेममय अहिंसाभाव ही धर्म है । जिसके परिणाममें सर्व जीवके प्रति मैत्रीभाव जग उठता है, द्वेषभाव निकल जाता है, कोई छोटा है, कोई बड़ा है, यह रागद्वेष भी नहीं रहता है, सर्वविश्वके आत्मा स्वभावसे समान है, ऐसा साम्यंभाव प्रकट हो जाता है। यही साम्यभाव आनन्दप्रद है तथा संसारमें Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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