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________________ 33 धर्माचारकी प्रेरणा धर्ममाचर यत्नेन मा भवस्त्वं मृतोपमः । सद्धर्मं चेतसां पुंसां जीविते सफलं भवेत् ॥६१॥ अन्वयार्थ-(यत्नेन) यत्नके साथ (धर्म) धर्मका (आचर) आचरण कर, (त्वं) तू (मृतोपमः) मृत प्राणीके समान (मा भव) मत रह । (सद्धर्म) सत्य धर्मको (चेतसां) अनुभव करनेवाले (पुंसां) मानवोंका (जीवितं) जीवन (सफलं) सफल (भवेत्) होता है। भावार्थ-इस दुर्लभ मनुष्य-जीवनकी सफलता धर्मके आचरणसे ही होती है । कर्मके प्रतापसे मानवोंका जीवन यहाँ भी सुख संतोषपूर्वक बीतता है और परलोकके लिए भी पुण्यकर्मका संचय होता है । जो मानव धर्मका साधन नहीं करते हैं उनका जीना न जीना समान है । वह मृतकके समान ही है, किन्तु उससे भी बुरा है। मृतक पापसंचय नहीं करता है । धर्मरहित अधर्मी मानव पापोंका संचय करके भावी जीवनको दु:खमय बना लेता है । इसलिए विवेकीको उचित है कि वह पुरुषार्थ करके धर्मका निरन्तर आचरण करे। मृता नैव मृतास्ते तु ये नरा धर्मकारिणः । जीवंतोऽपि मृतास्ते वै ये नराः पापकारिणः ॥६२॥ अन्वयार्थ-(ये) जो (नराः) मानव (धर्मकारिणः) धर्मका आचरण करनेवाले हैं (ते तु मृताः) वे यदि मर जावें (मृता न एव) तो भी वे मरे नहीं है (वै) परन्तु (ये नराः) जो मानव (पापकारिणः) पाप करनेवाले हैं (ते) वे (जीवन्तः अपि) जीते हुए भी (मृताः) मरे हुए हैं। __ भावार्थ-धर्मका पालन सदा ही सुखकारी है । जो धर्मात्मा आत्मज्ञानी वर्तमान जीवनको आत्मध्यान स्वाध्याय व्रत और तपाचरण द्वारा बिताते हैं वे यहाँ भी सुखी रहते हैं तथा भविष्यमें भी पुण्य बाँधकर साताकारी संयोग तथा संस्कारसे आत्मज्ञान पाते हैं। अतएव शरीर छूटनेपर भी उनको कोई हानि नहीं है । वे जैसे यहाँ जीते हुए सुखी थे वैसे परलोकमें सुखी रहेंगे । परन्तु जो मिथ्याभावसे ग्रसित हैं, विषयोंकी तृष्णाके वश हैं और अन्ध हो हिंसा, असत्य, चोरी आदि पापकार्य करते हैं, वे यहाँ भी आकुलित रहते हैं, चिन्तापूर्ण जीवन बिताते हैं और परलोकमें पापके फलसे घोर दुर्गतिमें चले जाते हैं। मानवसे एकेन्द्रिय वृक्षादि हो जाते हैं। ऐसे मानवोंका जीवन मरणके समान ही है, कुछ भी फलदायी नहीं है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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