SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६ सारसमुच्चय भावार्थ-मानव जन्मके समान कोई उत्तम जन्म नहीं है। ऐसे दुर्लभ जन्मको पाकर बुद्धिमान मानव वही है जो उसको सफल करे। अतएव सम्यग्दर्शनपूर्वक मुनि या श्रावकका चारित्र शक्तिके अनुसार पालना चाहिए, रत्नत्रयमयी धर्ममें दृढ भक्ति रखनी चाहिए तथा रागद्वेष छोडकर वीतरागभावमें रत रहना चाहिए। आत्मानुभवके अभ्याससे वीतरागभाव होता है । इसलिए निरंतर आत्म-चिन्तवनसे संवर व निर्जराका उपाय करके आत्माको शुद्ध करना चाहिए। यह अवसर फिर न मिलेगा। अनादिकालजीवेन प्राप्तं दुःखं पुनः पुनः । मिथ्यामोहपरीतेन कषायवशवर्त्तिना ॥४८॥ अन्वयार्थ-(अनादिकाल) अनादि कालसे (मिथ्यामोहपरीतेन) मिथ्यादर्शनके संयोगसे (कषायवशवर्तिना) कषायोंके वश होकर (जीवेन) इस जीवने (पुनः पुनः) बार बार (दुःखं प्राप्त) कष्ट उठाये हैं। भावार्थ-यह जगत अनादि है । अनादिसे ही इस संसारी प्राणीका इस संसारमें भ्रमण हो रहा है। इसका कारण मोहभाव है। मिथ्याश्रद्धानसे हमने संसारवासको ही उत्तम जाना, विषय-सुखको ही सुख समझा, अतीन्द्रिय आनन्द व मोक्षतत्त्वकी कभी प्रतीति नहीं की, इस कारण तृष्णाकी पूर्तिके लिए लोभ कषायमें फँसकर मायाचार, मान, द्वेषियोंसे क्रोध भाव करके इस मूढने बार बार घोर कर्म बाँधे और बार बार दुर्गतिमें पडकर घोर असहनीय कष्ट पाए। अब उचित है कि आत्माकी रक्षा दुर्गतिसे की जावे । अतएव कर्मबन्धन न होने व पुराने संचितको क्षय करनेका उद्यम करना उचित है। सम्यक्त्वादित्यसंभिन्नं कर्मध्वान्तं विनश्यति । आसन्नभव्यसत्त्वानां काललब्ध्यादिसन्निधौ ॥४९॥ अन्वयार्थ-(काललब्ध्यादिसन्निधौ) काललब्धि आदिकी निकटता होनेपर (आसन्नभव्यसत्त्वानां) निकटभव्य जीवोंका (कर्मध्वान्तं) कर्मोंका अंधकार (सम्यक्त्वादित्यसंभिन्नं) सम्यग्दर्शनरूपी सूर्यसे दूर किया हुआ (विनश्यति) नाश हो जाता है। ____ भावार्थ-उद्यम करते करते जब मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी कषायोंका बल इतना कम हो जावे कि करणलब्धिके प्रतापसे उनका उपशम होकर सम्यक्दर्शनका प्रकाश हो जावे तब ही काललब्धि आ गई ऐसा समझना चाहिए। जिस समय जो काम हो वही उसकी काललब्धि है । यह काललब्धि Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy