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________________ २५ सम्यग्दर्शनका महत्त्व है । (कृछात्) बड़ी कठिनतासे (सुचरितं) व भले चारित्रके पालनेसे (प्राप्त) पाया हुआ (नृत्वं) यह मनुष्य जन्म (निरर्थक) वृथा (याति) चला जा रहा है। भावार्थ-रत्नत्रय सहित आत्मध्यानका अभ्यास हमको शीघ्र ही आरम्भ कर देना चाहिए। फिर कर लेंगे ऐसा प्रमाद न करना चाहिए। क्योंकि एक तो बड़े भारी पुण्यके उदयसे बड़ी कठिनतासे यह मनुष्यजन्म प्राप्त हुआ है, जिस जन्ममें ही संयमका आराधन हो सकता है। अन्य तीन गतियोंमें संयम नहीं हो सकता, कर्मनिर्जरा करनेवाला पूर्ण ध्यान नहीं हो सकता। दूसरे इस कर्मभूमिमें मनुष्य जन्मकी स्थिति भी बनी रहनेका नियम नहीं है, अकाल मरण हो सकता है। इसलिए एक घडी वृथा न खोकर निरंतर आत्मज्ञान सहित ध्यानका अभ्यास करके इस नर जन्मको सफल कर लेना चाहिए। जो रत्नत्रय धर्मका साधन नहीं करते हैं वे इस जन्मको वृथा खोते हैं। अतीतेनापि कालेन यन्त्र प्राप्तं कदाचन । तदिदानीं त्वया प्राप्तं सम्यग्दर्शनमुत्तमम् ॥४६॥ अन्वयार्थ-(अतीतेन कालेन) भूतकालमें (कदाचन अपि) कभी भी (यत् न) जिसे नहीं (प्राप्त) पाया था (तत्) उस (उत्तमम्) श्रेष्ठ (सम्यग्दर्शन) सम्यग्दर्शनको (त्वया) तूने (इदानी) अब (प्राप्त) पा लिया है। भावार्थ-सम्यग्दर्शन खेवटिया है, भवसागरसे पार करने वाला है। यदि यह मिल गया होता तो भूतकालमें इस संसार-सागरमें भटकना नहीं पडता । यही सीधे मोक्षद्वीपमें ले जानेवाला है। बड़े ही शुभ संयोगसे अब जो इस सम्यग्दर्शनको प्राप्त कर लिया गया तो इसको अमूल्य लाभ हुआ समझकर इसकी दृढतासे रक्षा करनी चाहिए । इस आत्मश्रद्धासहित आगम ज्ञानको बढ़ाते हुए जितना जितना कषायोंका रस मन्द होता जायेगा उतनाउतना चारित्रको धारते हुए आत्मशुद्धिका प्रयत्न प्रमाद छोडकर कर लेना श्रेयस्कर होगा। अवसर चूकने पर पछताना पडेगा। उत्तमे जन्मनि प्राप्ते चारित्रं कुरु यत्नतः । सद्धर्मे च परां भक्तिं शमे च परमां रतिम् ॥४७॥ अन्वयार्थ-हे जीव! तुझे (उत्तमे) श्रेष्ठ (जन्मनि) जन्म (प्राप्ते) प्राप्त हुआ है इसलिए (यत्नतः) पुरुषार्थ करके (चारित्रं कुरु) चारित्रको पाल (च) तथा (सद्धमें) सच्चे धर्ममें (परां) उत्तम (भक्तिं) भक्ति कर (च शमे) और शांतभावमें (परमां रतिम्) परम प्रीति कर। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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