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आत्माके वैरी विषय-कषाय
१५ नाशकर व महा रागी हो धर्मको भूल जाता है । क्रोधके आधीन हो बावला होकर बकता है व परके नाशकी चेष्टा करता है। जैसे विषमिश्रित जल पीने योग्य नहीं वैसे इन तीनों भावोंका अनुभव भी योग्य नहीं-यह यहाँ भी आकुलताकारक है व परलोकमें भी दुर्गतिका कारक है ।
नास्ति कामसमो व्याधिर्नास्ति मोहसमो रिपुः । नास्ति क्रोधसमो वह्निर्नास्ति ज्ञानसमं सुखम् ॥२७॥
अन्वयार्थ-(कामसमः) कामके समान (व्याधिः) रोग (नास्ति) नहीं है, (मोहसमो) मोहके समान (रिपुः) शत्रु (नास्ति) नहीं है, (क्रोधसमः) क्रोधके समान (वह्निः) अग्नि (नास्ति) नहीं है । (ज्ञानसम) ज्ञानके बराबर (सुखं) सुख (नास्ति) नहीं है। __ भावार्थ-शरीरमें फोडा, फुसी, ज्वर, खांसी, अजीर्ण, क्षय, मरी आदि रोग बड़े भयानक हैं परन्तु उनका इलाज हो जाता है तो वे दूर हो जाते हैं। यदि दूर नहीं हुए तो केवल इस वर्तमान नाशवंत शरीरको ही छुडा देते हैं, परलोकमें बुरा नहीं करते हैं; परन्तु कामभावकी वेदना यहाँ भी कष्ट देती है और परलोकमें भी सताती है। इच्छानुकूल विषय न मिलनेपर कष्ट होता है । मिलने पर फिर वियोग हो जानेका कष्ट होता है, तृष्णाकी वृद्धिका कष्ट होता है, तीव्ररागसे कर्म बाँधकर परलोकमें कष्ट पाता है तथा वहाँ भी काम रोग संस्कारवश उठ खड़ा होता है । कामरोग भवभवमें दुःखदायी है, इस कामके समान कोई रोग नहीं। मिथ्यात्वके समान कोई शत्रु नहीं है । जगतमें जानमालका शत्रु शरीर व सम्पत्तिको ही हरता है परन्तु यह मिथ्यात्व नरक निगोद आदिके तुच्छ शरीरमें पटक कर भव-भवमें घोर कष्ट देता है । क्रोध बड़ी भारी अग्नि है । शान्त-भावको व शरीरके रुधिरको जलाती है। दूसरोंको कष्ट देनेके लिए प्रेरित करती है। घोर अनर्थमें प्रवृत्ति कराती है। तीव्र कर्मबंध कराकर परलोकमें दुःखसागरमें गिरा देती है। आत्मज्ञानसे सच्चा सुख होता है। शास्त्रके भीतर उपयोग रमानेसे भी सुख होता है। आत्मिक सुखका भोग ज्ञानद्वारा होता है। ज्ञानद्वारा सांसारिक सुखदुःखमें समभाव रह सकता है। इसलिए ज्ञानके समान सुख नहीं है ऐसा जानकर इन मोह, काम व क्रोधको जीतकर ज्ञानाभ्यासमें तल्लीन रहना योग्य है।
कषायविषयार्त्तानां देहिनां नास्ति निर्वृतिः । तेषां च विरमे सौख्यं जायते परमाद्भुतम् ॥२८॥
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