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सारसमुच्चय सम्यक्त्वज्ञानसम्पन्नो जैनभक्त जितेन्द्रियः ।
लोभमोहमदैस्त्यक्तो मोक्षभागी न संशयः ॥२५॥ अन्वयार्थ-(सम्यक्त्वज्ञानसम्पन्नो) सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञानका धारी (जैनभक्तः) जैनधर्मका भक्त (जितेन्द्रियः) इन्द्रियोंको जीतनेवाला (लोभमोहमदैः त्यक्तः) लोभ, मोह व मदसे रहित जीव (मोक्षभागी) कर्मों के बंधसे छूट जायेगा (न संशयः) इसमें कोई संशय नहीं है। ___ भावार्थ-संसारके नाशका उपाय जैनधर्मके यथार्थ तत्त्वोंका श्रद्धान तथा ज्ञान हैं और फिर उस सम्यग्ज्ञानके अनुसार चारित्रका पालना है। साधकको श्री जिनेन्द्रदेव, जिनवाणी, जैन साधु व जैनधर्मकी भावपूर्वक भक्ति करते रहना चाहिए । पाँच इन्द्रियोंको और मनको अपने आधीन रखना चाहिए तथा इस क्षणभंगुर संसारके नाटकमें मोह नहीं करना चाहिए, सांसारिक विभूतिका स्वामी होनेपर भी कोई अहंकार नहीं करना चाहिए और इन्द्र चक्रवर्ती आदि क्षणिक पदोंका लोभ नहीं करना चाहिए। जो सम्यग्दृष्टि ज्ञान व वैराग्य सहित आत्मानुभव करेगा वह अवश्य कर्मबंधसे छूटकर मोक्ष प्राप्त करेगा।
कामक्रोधस्तथा मोहस्त्रयोऽप्येते महाद्विषः ।
एतेन निर्जिता यावत्तावत्सौख्यं कुतो नृणाम् ॥२६॥ अन्वयार्थ-(कामक्रोधः) काम, क्रोध (तथा मोहः) तथा मोह (एते त्रयः अपि) ये तीनों ही (महाद्विषः) इस जीवके महान वैरी हैं । (यावत्) जब तक (एतेन) इन शत्रुओंसे (निर्जिता) मनुष्य पराजित है (तावत्) तब तक (नृणाम्) मानवोंको (सौख्यं) सुख (कुतः) किस तरह हो सकता है ?
भावार्थ-सच्चा सुख आत्माका स्वभाव है । उसका स्वाद तब ही भाता है जब आत्माका स्वभाव निर्मल होता है। यदि आत्माका स्वभाव मिथ्यात्वसे, काम भावसे तथा क्रोध भावसे मलिन हो जाता है तब इन ही कलुषताओंका स्वाद आता है। जैसे पानीमें यदि लवण, नीम, खटाई मिली हो तो लवणका खारा, नीमका कटुक, खटाईका खट्टा स्वाद आयेगा, पानीका निर्मल मिष्ट स्वाद नहीं आयेगा । जो मानव रात-दिन इन तीनों महान शत्रुओंके वशमें रहते हैं उनको आत्मसुख कैसे मिल सकता है ? अतएव इन तीनोंको जीतना चाहिए । वास्तवमें ये बड़े वैरी हैं । मिथ्यात्वसे यह प्राणी अपनेको ही भूल जाता है, कर्मजनित पर्यायमें आपा मान लेता है। कामभावसे अंधा हो, तीव्र विषयभोगमें रत हो शरीरके वीर्यका
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