SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सारसमुच्चय सर्वद्वन्द्वं परित्यज्य निभृतेनान्तरात्मना । ज्ञानामृतं सदा पेयं चित्ताह्लादनमुत्तमम् ॥१२॥ अन्वयार्थ - (अंतरात्मना ) अंतरात्मा सम्यग्दृष्टिको ( निभृतेन) निश्चिन्त होकर (सर्वद्वन्द्वं ) सर्व सांसारिक उपाधियोंको (परित्यज्य ) त्यागकर (चित्ताह्लादनम् ) चित्तको आनन्द देनेवाले ( उत्तमम् ) व श्रेष्ठ ( ज्ञानामृतं) आत्मज्ञानसे उत्पन्न अमृतको (सदा पेयं) सदा पीना योग्य है । भावार्थ - ज्ञानी सम्यग्दृष्टि महात्माका यही चारित्रपालन है कि वह मनकी आकुलताके कारण सर्व सांसारिक कार्योंका त्याग कर दे । यदि सामर्थ्य हो तो सर्व परिग्रहका त्यागकर मुनि हो जावे; अन्यथा एकदेश श्रावकका चारित्र ग्रहणकर आरंभको त्यागे या घटावे । पूर्ण निश्चिंत होकर एकांत में बैठ आसन जमा समता - भावके द्वारा शुद्ध आत्माके स्वरूपका अनुभव करे । इसी आत्मध्यानके प्रतापसे अपूर्व आनंद होगा । इस आत्मध्यानके अभ्यासको निरंतर त्रिकाल व द्विकाल व एक काल हर समय ४८ मिनिट तक यथासंभव करना योग्य है । यही चारित्र मोक्षद्वीपमें ले जानेवाला है । ज्ञानं नाम महारत्नं यन्न प्राप्तं कदाचन । संसारे भ्रमता भीमे नानादुःखविधायिनि ॥१३॥ अधुना तत्त्वया प्राप्तं सम्यग्दर्शनसंयुतम् । प्रमादं मा पुनः कार्षीर्विषयास्वादलालसः ॥१४॥ अन्वयार्थ - ( नानादुःखविधायिनि ) अनेक प्रकार शारीरिक और मानसिक कष्टोंको देनेवाले (भीमे) इस भयानक (संसारे) संसारमें (भ्रमता) भ्रमण करते हुए (यत्) जिस (ज्ञानं नाम महारत्नं) सम्यग्ज्ञान नामके महान रत्नको ( कदाचन) कभी ( न प्राप्तं ) नहीं पाया था ( त्वया) तूने (अधुना ) अब ( सम्यग्दर्शनसंयुतं ) सम्यग्दर्शन सहित (तत्) उसे ( प्राप्तं ) पा लिया है ( अतएव ) इसलिए (पुनः) फिर तू (विषयास्वादलालसः) पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंमें लुब्ध होकर प्रमाद व आलस्य (मा कार्षीः) न कर । भावार्थ- आत्मा अनात्माके भेदविज्ञान सहित सम्यग्ज्ञानका पाना बड़ा ही दुर्लभ है । असैनी पंचेन्द्रिय पर्यन्तके तो योग्यता ही नहीं है । सैनी पंचेन्द्रिय होकर भी अनंतवार सम्यग्ज्ञान पानेका निमित्त ही नहीं बना । बड़े पुण्यके उदयसे आर्यखण्ड, उत्तम कुलमें जन्म मिला, इन्द्रियोंकी पूर्णता हुई, प्रबल बुद्धि पायी, जिनधर्मके उपदेशका समागम मिला, सात तत्त्वोंको जाना, उनका मनन किया, परिणामोंकी शुद्धता हुई, करणलब्धिका लाभ हुआ, For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy