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आत्महितकी आवश्यकता ज्ञानादित्यो हृदिर्यस्य नित्यमुद्योतकारकः ।
तस्य निर्मलतां याति पंचेन्द्रियदिगङ्गना ॥१०॥ अन्वयार्थ (यस्य) जिसके (हदि) मनमें (ज्ञानादित्यः) ज्ञानरूपी सूर्य (नित्यं) सदा (उद्योतकारकः) प्रकाशित रहता है (तस्य) उसकी (पंचेन्द्रियदिगङ्गना) पाँचों इन्द्रियरूपी दिशाएँ जोकि सूर्यकी स्त्रियाँ हैं (निर्मलतां याति) निर्मल रहती हैंनिर्विकारी रहती हैं।
भावार्थ-सूर्यके प्रकाशसे दिशाएँ भी प्रकाशित व निर्मल रहती हैं उनपर अन्धकार नहीं आता है। सूर्य दिशारूपी स्त्रीका पति है, दिशाकी शोभा सूर्यसे है, सूर्यके वियोगसे दिशा अन्धकार-युक्त मलिन हो जाती है, उसी प्रकार पाँच इन्द्रियोंके विकारोंको दूर रखकर उनको शान्त व स्वभावमें काम करनेवाली रखनेके लिए सम्यग्ज्ञानरूपी सूर्यके प्रकाशकी आवश्यकता है। आत्मज्ञान व वैराग्यके प्रतापसे इन्द्रियाँ वशमें रहती हैं। स्पर्शनेन्द्रिय ब्रह्मचर्यमें, जिह्वा इन्द्रिय रस-नीरस भोजन पाकर संतोषमें, नेत्र शास्त्रावलोकनमें व निर्विकार भावके साथ वर्तनेमें, कर्ण जिनवाणी श्रवणमें, नासिका सुगंध-दुर्गंधमें समभाव रखनेमें समर्थ होती है । मनको कभी बेकाम नहीं रखना चाहिए । आत्मज्ञान व शास्त्र-ज्ञानके अभ्यासमें लगाये रखना आत्महितैषीका परम कर्तव्य है।
एतज्ज्ञानफलं नाम यच्चारित्रोद्यमः सदा ।
क्रियते पापनिर्मुक्तैः साधुसेवापरायणैः ॥११॥ अन्वयार्थ (एतत्) यही (ज्ञानफलं) ज्ञान पानेका फल (नाम) प्रसिद्ध है (यत्) जो (पापनिर्मुक्तैः) पापोंको त्यागनेवाले (साधुसेवापरायणैः) व साधुओंकी सेवामें लीन महात्मा (चारित्रोद्यमः) चारित्रका पुरुषार्थ (सदा) नित्य (क्रियते) करें। ___भावार्थ-शास्त्रज्ञानधारी पण्डित होनेकी सफलता तब ही है जब उस ज्ञानके प्रकाशमें पापोंको पाप जानकर त्याग दिया जावे तथा मन पर अंकुश रखनेके लिए साधुओंकी सेवामें लीन रहकर गुरुकी आज्ञाप्रमाण व उनके निरीक्षणमें मुनि या श्रावकका चारित्र नित्य निर्मलभावसे पाला जावे तथा अंतरंगमें स्वरूपा-चरणका या स्वानुभवका प्रकाश किया जावे । चारित्र पाले बिना ज्ञानका होना निष्फल है । आत्मरमणतासे ही वीतरागता होगी, वीतरागतासे ही स्वात्मानन्द मिलेगा व कर्ममल दूर होगा।
पाठान्तर-१. दिगाननम् ।
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