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________________ १५० सारसमुच्चय सारसमुच्चय ग्रन्थः भवविच्छित्तिकारणम् दृब्धः) इस सारसमुच्चय ग्रन्थको संसारकी स्थिति काटनेके लिए रचा है। भावार्थ-श्री कुलभद्रचार्यने केवल आत्मकल्याणके हेतु इस ग्रन्थको रचा है, और कोई ख्यातिकी चाह नहीं है। ये भक्त्या भावयिष्यन्ति भवकारणनाशनम् । तेऽचिरेणैव कालेन 'सुखं प्राप्स्यंति शाश्वतम् ॥३२६॥ अन्वयार्थ-(ये भवकारणनाशनम् भक्त्या भावयिष्यन्ति) जो कोई संसारके कारण कर्मोंको क्षय करनेके लिए भक्तिपूर्वक इस ग्रन्थकी भावना करेंगे (ते अचिरेण एव कालेन शाश्वतम् सुखं प्राप्स्यंति) वे थोड़े ही कालमें अविनाशी सुखको प्राप्त होंगे अर्थात् मोक्षका लाभ करेंगे । __ भावार्थ-इस ग्रन्थमें सुगमतासे मोक्षका उपाय बताया है अर्थात् आत्मानंद पानेका मार्ग झलकाया है । जो कोई इसे बारबार पढेंगे वे सच्चे सुखको पायेंगे। सारसमुच्चयमेतद्ये पठन्ति समाहिताः । ते स्वल्पेनैव कालेन पदं यास्यन्त्यनामयं ॥३२७॥ अन्वयार्थ-(ये समाहिताः एतत् सारसमुच्चयं पठन्ति) जो समाधानचित्त होकर इस सारसमुच्चय ग्रन्थको पढेंगे (ते स्वल्पेन एव कालेन अनामयं पदं यास्यन्ति) वे थोड़े ही कालमें सर्व रोगरहित अविनाशी पदको पा सकेंगे। भावार्थ-इस ग्रन्थका शांतिसे मनन वैराग्यका कारण है। वैराग्यसे ध्यानकी सिद्धि होती है और ध्यानसे मोक्ष प्राप्त होता है । नमः परमसद्ध्यानविघ्ननाशनहेतवे । महाकल्याणसम्पत्तिकारिणेऽरिष्टनेमये ॥३२८॥ __ अन्वयार्थ-(परमसद्ध्यानविघ्ननाशनहेतवे) परम सुन्दर धर्मध्यान व शुक्लध्यानमें विघ्नोंको नाश करनेके कारण व (महाकल्याण सम्पत्तिकारिणे) महाकल्याणरूप शिवसम्पदाके कारण (अरिष्टनेमये) श्री अरिष्टनेमि बाईसवें तीर्थंकरको (नमः) नमस्कार हो । ___ भावार्थ-श्री नेमिनाथ भगवानकी भक्ति प्रदर्शित करते हुए कुलभद्राचार्यने सारसमुच्चय ग्रन्थका निर्माण किया है अतएव अंतमें उन्होंने श्री नेमिनाथजीको ही नमस्कार किया है। पाठान्तर-१. प्रशमं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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