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________________ १२४ सारसमुच्चय सर्वसत्त्वे दयां मैत्री यः करोति सुमानसः । जयत्यसावरीन् सर्वान् बाह्याभ्यन्तरसंस्थितान् ॥२६१॥ अन्वयार्थ-(यः सुमानसः) जो सुन्दर मनका धारक (सर्वसत्त्वे) सब प्राणियोंमें (दयां मैत्री करोति) दया व मैत्रीभाव करता है (असौ) वह (बाह्याभ्यन्तरसंस्थितान्) बाहरी और भीतरी रहनेवाले (सर्वान् अरीन्) सर्व शत्रुओंको (जयति) जीत लेता है। भावार्थ-इस जीवके बाह्य शत्रु अन्य मानव हो सकते हैं परन्तु अन्तरङ्ग शत्रु क्रोध, मान, माया, लोभादि विभाव हैं । इन दोनोंके जीतनेका उपाय दया और मैत्रीभाव है । जो दयाभाव और मैत्रीभावके धारी होते हैं वे शत्रुओंको भी वशमें कर लेते हैं तथा उनके कषाय मन्द रहती है, वे धर्म-साधन कर कषायोंको उत्पन्न करनेवाले कर्मोंको जला सकते हैं। शमं नयन्ति भूतानि ये शक्ता देशनाविधौ । कालादिलब्धियुक्तस्य प्रत्यहं तस्य निर्जरा ॥२६२॥ अन्वयार्थ-(ये देशनाविधी शक्ताः) जो धर्मोपदेश देनेमें लीन हैं (भूतानि शमं नयन्ति) वे प्राणियोंको शांतभावमें ले आते हैं (कालादिलब्धियुक्तस्य तस्य) उस महात्माके काललब्धिके होने पर जब स्वात्मानुभवकी अधिक जागृति होती है तब उसके (प्रत्यहं निर्जरा) सदा ही कर्मोंकी निर्जरा होती है। ___ भावार्थ-जो स्वयं शान्तपरिणामी हैं और दूसरोंको धर्मोपदेश देकर शांतभावमें लानेका उपदेश देते हैं वे मैत्री, दया और प्रज्ञाको रखते हुए जब-जब आत्मध्यानमें मग्न होते हैं तब-तब उनके कर्मोंकी विशेष निर्जरा होती है । कषायोंका शमन ही ध्यानकी सिद्धिका कारण है, ध्यानसे ही कर्म झड़ते हैं। शमो हि न भवेद्येषां ते नराः पशुसन्निभाः । समृद्धा अपि तच्छास्त्रे कामार्थरतिसंगिनः॥२६३॥ अन्वयार्थ-(येषां न हि शमः भवेत्) जिन मानवोंके भीतर शांत भाव नहीं होता है (ते नराः पशुसन्निभाः) वे मानव पशुओंके समान हैं । (तच्छास्त्रे समृद्धाः अपि) यद्यपि वे शास्त्रोंके ज्ञाता हैं (कामार्थरति-संगिनः) तथापि वे कामभाव और द्रव्यकी आसक्तिमें लगे रहते है। भावार्थ-जब तक कषाय मंद न हो, परिणामोंमें शान्ति न हो, तब तक मानवपनेकी ही शोभा नहीं है। फिर जो शास्त्रोंके ज्ञाता होकर भी रातदिन पैसा कमानेमें व विषय-भोगोंमें अनुरक्त रहें तो उनका क्या कहना ! शांतभावके बिना मानव पशुतुल्य है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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