SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ध्यानी जीवकी अङ्गनाएँ १२३ त्यागने योग्य व ग्रहण करने योग्य तत्त्वको जाननेवाली है, और (सर्वकर्मणि याऽरता) जो सर्व मन, वचन, कायके कार्योंमें रत नहीं है। भावार्थ-ध्यानीके लिए प्रज्ञाकी बहुत बड़ी आवश्यकता है। प्रज्ञा भेदविज्ञानको कहते है। भेदविज्ञानसे ही आत्मा सर्व पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल, आकाशसे और अन्य आत्माओंसे तथा द्रव्यकर्म ज्ञानावरणादि, भावकर्म रागद्वेषादि व नोकर्म शरीरादिसे भिन्न अनुभवमें आता है। जब ध्यानके भीतर चावल और छिलका अलग अलग दीखता है तब ही छिलकेसे चावलको अलग किया जा सकता है। इसीके प्रतापसे अपने शुद्धात्माका भिन्न ज्ञान होकर उसकी रुचि होती है । जब शुद्धात्माकी रुचि हो जाती है तब उपयोग मन, वचन, कायकी क्रियाओंमें रत न होकर अपने आत्माके शुद्ध स्वभावमें ही रत होता है, जिससे परमानन्दका लाभ होता है । दयाइना सदा सेव्या सर्वकामफलप्रदा । सेवितासौ करोत्याशु मानसं करुणात्मनम् ॥२५९॥ अन्वयार्थ-(सर्वकामफलप्रदा) सर्वकामनाओंके फलको देनेवाली (दयांगना) दयारूपी स्त्रीकी (सदा सेव्या) सदा सेवा करनी चाहिए । (असौ) यह दया (सेविता) सेवन की हुई (आशु) शीघ्र ही (मानसं करुणात्मनम् करोति) मनको दयाभावसे पूर्ण कर देती है। भावार्थ-ज्ञानी पुरुषको ध्यानके लिए दया नामकी स्त्रीका सेवन करना चाहिए जिससे सर्व जीवोंको उसके द्वारा कष्ट न पहुँचे, प्रत्युत सर्वकी रक्षाका यत्न हो सके। दयावान प्राणी किसीका बुरा नहीं विचारता है। चित्त कोमल रहता है तब ध्यान सिद्ध होता है । दयाभावसे पुण्यबंध भी होता है, जिससे साताकारी पदार्थ प्राप्त होते हैं । मैत्र्यंगना सदोपास्या हृदयानन्दकारिणी । या विधत्ते कृतोपास्तिश्चित्त विद्वेषवर्जितं ॥२६०॥ अन्वयार्थ-(हृदयानन्दकारिणी) मनको आनंद देनेवाली (मैत्र्यंगना) मैत्रीरूपी स्त्रीकी (सदा उपास्या) सदा सेवा करनी चाहिए (या) जो (कृतोपास्तिः) उपासना किये जाने पर (विद्वेषवर्जितं चित्तं विधत्ते) द्वेषरहित चित्त बना देती है। भावार्थ-ध्यानीकी तीसरी स्त्री मैत्री है। सर्व जीवोंपर मैत्रीभाव रखनेसे द्वेषभाव मिट जाता है, मनमें आनन्द रहता है, कोमलभाव हो जाता है, महान पुण्यमयी बंध होता है। पाठान्तर-१. करुणात्मकम् । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy