________________
११६
सारसमुच्चय गृहस्थजन सन्तोषसे जीवन व्यतीत करें और धर्मका साधन करें तो बहुत अधिक मानसिक दुःखोंसे बच सकते हैं, उभय लोककी सिद्धि कर सकते हैं।
सन्तुष्टाः सुखिनो नित्यमसन्तुष्टाः सुदुःखिताः ।
उभयोरन्तरं ज्ञात्वा संतोषे क्रियतां रतिः ॥२४२॥ अन्वयार्थ-(सन्तुष्टाः नित्यं सुखिनः) संतोषी जीव सदा सुखी रहते हैं, (असंतुष्टाः सुदुःखिताः) जब कि असंतोषी जीव दुःखी रहते हैं । (उभयोः अन्तरं ज्ञात्वा) संतोषी तथा असंतोषीका अन्तर जानकर (संतोषे रतिः क्रियतां) संतोषमें प्रीति करनी योग्य है। ___भावार्थ-जो संतोषी होते हैं वे कर्मोदयसे प्राप्त इन्द्रियोंके विषयोंको मंद कषायसे भोग लेते हैं और सुखी रहते हैं। जो प्राप्त विषयोंको पसंद नहीं करते हैं किन्तु मनोज्ञ विषयोंकी इच्छा करते हैं वे इच्छानुकूल न पाकर दुःखी रहते हैं । यदि कदाचित् कोई पदार्थ इच्छानुकूल मिल भी जाता है तो उनकी तृष्णा उससे उत्तम पदार्थके प्रति बढ़ जाती है । जब तक वह पदार्थ नहीं मिलता है तब तक दुःखी रहते हैं। यदि वह मिल गया तो और अधिक तृष्णा बढ़ जाती है। इस तरह उनका जीवन तृष्णाकी ज्वालासे जलता हुआ ही बीतता है। वे सांसारिक सुखको भी बहुत अल्प पाते हैं। आत्मिक सुख तो उनको कभी प्राप्त नहीं होता है।
द्रव्याशां दूरतस्त्यक्त्वा सन्तोषं कुरु सन्मते ।
मा पुनर्दीर्घसंसारे पर्यटिष्यसि निश्चितम् ॥२४३॥ अन्वयार्थ-(सन्मते) हे सद्बुद्धि धारक भाई ! (द्रव्याशां दूरतः त्यक्त्वा) द्रव्यकी आशाको दूरसे छोडकर (संतोषं कुरु) संतोष मनमें धारण कर, (मां पुनः) नहीं तो (दीर्घसंसारे) इस महान संसारमें (निश्चितम् पर्यटिष्यसि) तू निश्चयसे भ्रमण करेगा। __भावार्थ-जो प्राणी द्रव्यादि बाहरी पदार्थकी तृष्णामें फँसा रहता है वह कदापि मोक्षका तथा मोक्षमार्गका प्रेमी नहीं हो सकता है, अतएव आचार्य कहते हैं कि द्रव्यके संचयकी तृष्णाको छोड़कर सन्तोषपूर्वक धर्मको साधन करते हुए गृहस्थमें रह और धर्मसाधनके लिए समय निकाल कर जीवन बिता । यदि धनकी तृष्णामें फँसकर धर्मके पालनमें प्रमाद किया जायेगा तो उसका फल यही होगा कि इस जीवको अनन्तकाल तक संसारमें भ्रमण करना पड़ेगा । धर्मसाधनके समयको छोड़कर जो पैसा कमानेके लिए समय नियत हो, उसमें न्यायपूर्वक आजीविकाका साधन करे, अधिक या
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org