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________________ संतोषकी महिमा ११५ धनको संतोषके साथ कमाते हैं, और अपना समय शास्त्राभ्यास, सत्संगति, तत्त्वविचार, आत्मध्यानके लिए अवश्य निकालते हैं। परन्तु जो धनके ही मोहमें उन्मत्त हैं वे कभी आत्माके हितको विचारते ही नहीं, वृथा जीवन खोकर दुर्गतिके पात्र हो जाते हैं। सन्तोषसारसद्रत्नं समादाय विचक्षणाः । भवन्ति सुखिनो नित्यं मोक्षसन्मार्गवर्तिनः ॥२४०॥ अन्वयार्थ-(विचक्षणाः) बुद्धिमान पुरुष (संतोषसारसद्रत्नं समादाय) संतोषरूपी और साररूप सच्चे रत्नको हृदयमें धारण करके (नित्यं मोक्षसन्मार्गवर्तिनः) नित्य मोक्षके सच्चे मार्गपर चलते हुए (सुखिनः भवन्ति) सुखी रहते हैं। ____ भावार्थ-जो मानव अपने नरजन्मको सफल करना चाहते हैं, वे ही बुद्धिमान हैं, वे रत्नत्रय मार्गपर चलते हुए आत्मध्यानका और श्री जिनेन्द्रभक्तिका व दान परोपकार तथा श्रावक या मुनिके व्रतोंका अभ्यास करते हैं, विषयभोगोंकी गद्धताको त्याग देते हैं। परम संतोषरूपी रत्नको धारणकर सदा सुखी रहते हैं। पुण्यकर्मके उदयसे जो भोजनपान मिल जाता है उसमें संतोष करते हुए जीवन बिताते हैं। उनका मुख्य लक्ष्य आत्माकी उन्नतिपर रहता है । गृहस्थावस्थामें भी वे सामायिक, स्वाध्यायादि नित्य कर्मों में कभी प्रमाद नहीं करते हैं। तृष्णानलप्रदीप्तानां सुसौख्यं तु कुतो नृणाम् । दुःखमेव सदा तेषां ये रता धनसञ्चये ॥२४१॥ अन्वयार्थ-(तृष्णानलप्रदीप्तानां नृणाम् तु) जो मानव तृष्णारूपी अग्निसे जलते रहते हैं उनको (कुतः सुसौख्यं) किस प्रकार उत्तम सुख प्राप्त हो सकता है ? (ये धनसंचये रताः) जो धनके एकत्र करनेमें ही रत रहते हैं (तेषां सदा दुःखं एव) उन्हें सदा दुःख ही भोगना पड़ता है। भावार्थ-उत्तम सुख आत्माका स्वभाव है, इस सुखको वे ही प्राप्त कर सकते हैं जो सन्तोषी रहते हुए ध्यान-स्वाध्याय व पूजा-पाठके लिए समय निकालते हैं । जो रातदिन धनकी तृष्णामें रत रहते हैं और धर्मका साधन नहीं करते हैं उनको उत्तम सुख तो प्राप्त ही नहीं हो सकता है, इन्द्रियोंके सुखोंको वे कुछ पाते हैं, परन्तु आकुलताको बढ़ा लेते हैं, दुःख उनको अधिक रहता है; क्योंकि तृष्णा बढ़ती जाती है, इच्छानुकूल पदार्थ मिलते नहीं हैं; और जो इष्ट पदार्थ मिलते हैं उनका वियोग हो जाता है तब वे बहुत कष्ट पाते हैं। उनका जीवन निराशाजनक बीतता है । यदि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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