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________________ ममत्व और परिग्रहत्यागसे लाभ १११ भावार्थ - शरीरकी आसक्ति मूर्छा बुरी चीज है । यदि शरीरमें मोह हो तो इसके लिए भोग्य वस्तुओंके संग्रहका प्रबन्ध करना पड़ता है और परिग्रहका सम्बन्ध बढ़ जाता है । ज्ञानी यह भले प्रकार जानते हैं कि यह शरीर एक दिन छूट जायेगा तब कोई इसे रख नहीं सकता। मंत्र, यंत्र, औषधि, देव, दानव, मित्रादि कोई भी शरीरको विनाशसे बचा नहीं सकते। ऐसा समझकर ज्ञानीजन इससे प्रीति तोड़ देते हैं, चाकरके समान इसे पालकर इससे संयमका साधन कर लेते हैं । सङ्गात् सञ्जयते गृद्धिर्गृद्धौ वाञ्छति सञ्चयम् । सञ्चयाद्वर्धते लोभो लोभाद्दुःखपरम्परा ॥२३२॥ अन्वयार्थ - ( संगात् गृद्धिः संजायते) परिग्रहकी मूर्छा होनेसे विषयोंकी लोलुपता पैदा होती है, (गृद्धौ संचयं वांछति) लोलुपता होनेसे धनादि परिग्रहके एकत्र होनेकी इच्छा करता है, (संचयात् लोभः वर्धते ) और उस धनादिके संचय करनेसे लोभ बढ़ता जाता है तथा उस (लोभात् दुःखपरम्परा) लोभसे दुःखोंकी संतति बढ़ती जाती है । भावार्थ - जिसके भीतर शरीरादिसे ममता होगी उसे भीतर इन्द्रियभोगोंकी गृद्धता पैदा हो जायेगी, तब यह अवश्य धनादि सामग्रीको इकट्ठा करेगा । जितना - जितना धन बढ़ेगा उतना उतना लोभ बढ़ेगा कि यह धन कम न हो किन्तु बढ़ता जावे । लोभके बढ़नेसे अन्यायमें प्रवृत्ति होगी, अन्यायसे तीव्र पापबंध होगा, पापके फलसे दुःख होगा, नीच गति प्राप्त होगी । वहाँ भी अशुभ भावोंके कारण पापबंध होगा । पुनः दुःखमय अवस्था प्राप्त होगी और लोभकी मंदता होना अतिशय कठिन हो जायेगा । ममत्वाज्जायते लोभो लोभाद्रागश्च जायते । रागाच्च जायते द्वेषो द्वेषादुःखपरम्परा ॥२३३॥ अन्वयार्थ - (ममत्वात्) परपदार्थोंके ममताभावसे (लोभो जायते) लोभ पैदा होता है (लोभात् रागः च जायते) तथा लोभसे राग पैदा होता है, ( रागात् च द्वेषः जायते) रागसे द्वेष उत्पन्न होता है । (द्वेषात् दुःखपरम्परा) द्वेषसे दुःखकी संतति चल पडती है । भावार्थ - शरीर, कुटुम्ब तथा भोग-सामग्रीमें ममताभाव होने से उनके बने रहनेका और उनके लिए धनादिकी प्राप्तिका लोभ होता है । लोभके कारण जिन-जिन पदार्थोंके संयोगसे स्वार्थकी सिद्धि होती है, उनके प्रति राग होता है, रागके कारण जो उन पदार्थोंके विरोधी हैं उनसे द्वेष हो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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