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सारसमुच्चय (तत स्वकीयं कथं भवेत) वह शरीर अपना कैसे हो सकता है (इति आलोच्य) ऐसा विचार कर (विद्वान्) भेदविज्ञानी पंडित (शरीरे अपि) शरीरसे भी (तां च परित्यजेत्) उस ममत्वभावको छोड़ देते हैं ।
भावार्थ-धन, धान्य, वस्त्रादि तो शरीरसे बिलकुल जुदे हैं, इनका त्याग कर देना तो संभव है, शरीरका त्याग तो संभव नहीं है, क्योंकि यह संयमका साधक है। ऐसा है तो भी साधुगण शरीरमें ममता नहीं रखते हैं, संयमका साधक जानकर केवल उसकी रक्षा करते हैं । उनको यह निश्चय है कि शरीर पर है, आयुकर्मके आधीन है, आयुक्षयसे शरीरका अवश्य क्षय हो जायेगा । तब वे प्रवीण साधु इस क्षणिक शरीरसे मोह नहीं करते हैं किंतु इसके द्वारा आत्मध्यानका अभ्यास करते हैं।
नूनं नात्मा प्रियस्तेषां ये रताः सङ्गसंग्रहे।
समासीनाः प्रकृतिस्थाः स्वीकर्तुं नैव शक्यते ॥२३०॥ अन्वयार्थ-(ये संगसंग्रहे रताः) जो परिग्रहके संचय करनेमें रत हैं, (समासीनाः) सुखसे बैठनेवाले हैं, (प्रकृतिस्थाः) कोंके उदयके आधीन हैं, (तेषां नूनं आत्मा प्रियः न) उनको निश्चयसे आत्माकी ओर प्रेम नहीं है । (स्वीकर्तुं नैव शक्यते) ये कभी भी आत्माकी सत्ता स्वीकार नहीं कर सकते हैं।
भावार्थ-संसार और मोक्षमें विपरीतता है। जो संसारप्रेमी हैं वे मोक्षप्रेमी नहीं होते और जो मोक्षप्रेमी हैं वे संसारके रागी नहीं होते। जिनको विषयभोगोंकी भावना रहती है वे नाना प्रकार भोग-सामग्री और धनादिका संचय करते रहते हैं। आलस्य प्रमादसे बैठे रहते हैं। कर्मोंके उदयके अनुकूल वर्तते रहते हैं । वे मोही जीव एक तो आत्माकी बात ही नहीं सुनते हैं, यदि सुनते हैं तो धारणामें उसे नहीं लाते । अनंतानुबन्धी कषायके उदयसे उनका आत्माकी ओर प्रेम उदित नहीं होता ।
ममत्व और परिग्रहत्यागसे लाभ शरीरमात्रसङ्गेन भवेदारम्भवर्धनम् । तदशाश्वतमत्राणं तस्मिन् विद्वान् रतिं त्यजेत् ॥२३१॥
अन्वयार्थ-(शरीरमात्रसङ्गेन) स्त्री, पुत्र, मित्र, धनादिका और परिग्रह न होते हुए भी शरीर मात्रके परिग्रहसे (आरम्भवर्धनम् भवेत्) शरीरके लिए आरम्भकी वृद्धि हो सकती है । (तत् अशाश्वतं) यह शरीर अनित्य है (अत्राणं) अशरण है इसलिए (विद्वान्) विद्वान पुरुष (तस्मिन् रतिं त्यजेत्) इस शरीरमेंसे आसक्ति छोड़ देते हैं।
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