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________________ ९४ सारसमुच्चय ध्यानकी अग्नि के प्रतापसे भव-भवके बाँधे हुए कर्म भस्म हो जायेंगे और केवलज्ञान प्रकट हो जायेगा । सम्यक्त्वसहित आत्मानुभव ही सम्यक्चारित्र है जो मोक्षका लाभ करता है । जीवितेनापि किं तेन कृता न निर्जरा तदा । कर्मणां संवरो वापि संसारासारकारिणाम् ॥ १८९॥ अन्वयार्थ - (तेन जीवितेन अपि किं ) उस मानवके जीवनसे क्या जिसने ( तदा) इस मानव - जन्मके अवसर पर ( संसारासारकारिणाम् कर्मणां ) इस असार संसारमें भ्रमण करानेवाले कर्मोंका ( संवरः वा अपि निर्जरा न कृता) न संवर ही किया और न निर्जरा ही की ? भावार्थ - मानव जीवनकी सफलता आत्माकी शुद्धिसे होती है । यह आत्मा कर्मोंकी संगतिसे दुःखी है तथा जन्ममरणके दुःख उठा रहा है । इन दुःखोंके देनेवाले अपने बाँधे हुए कर्म हैं । कर्मोंके क्षयका उपाय यह मानवजन्म है । बुद्धिमानको उचित है कि नये कर्मोंका संवर करे और पुराने बंध - प्राप्त कर्मोंकी निर्जरा करे जिससे आत्मा शुद्ध हो जावे । संवर व निर्जराका कारण चारित्रका व तपका आराधन है अतएव साधुके पाँच अहिंसादि व्रतोंको, ५ समितियोंको, तीन गुप्तियोंको, उत्तम क्षमादि दश धर्मोंको, १२ भावनाओंको, २२ परीषहोंके जयको, सामायिकादि चारित्रको व अनशनादि बारह प्रकारके तपको भले प्रकार पालना चाहिए । आत्मध्यानका विशेष अभ्यास करना चाहिए और समयको वृथा न खोना चाहिए । स जातो येन जातेन स्वकृताऽपक्वपाचना । कर्मणां पाकघोराणां विबुधेन महात्मनाम् ॥ १९०॥ अन्वयार्थ - (सः जातः) उसीका जन्म सफल है (येन विबुधेन जातेन ) जिस बुद्धिमानने जन्म लेकर ( महात्मनां पाकघोराणां कर्मणां अपक्क पाचना स्वकृता) महान कर्मोंकी, जिनका फल बहुत भयंकर है, पकनेसे पहले ही स्वयं निर्जरा कर ाली हो । भावार्थ-तपमें यह शक्ति है कि कर्मोंकी स्थिति व अनुभाग घटा देता है जिससे बहुत दीर्घकाल तक उदय होकर अति भयानक फल देनेवाले कर्म क्षणभरमें नाश कर दिये जाते हैं । बुद्धिमान मानवका धर्म है कि इस मानवजन्मको दुर्लभ समझके इससे ऐसा तप और आत्मध्यान करे जिससे पूर्वबद्ध कर्मोंकी निर्जरा हो जावे। जिसने ध्यान द्वारा आत्माको शुद्ध करनेका प्रयत्न किया है उसी मानवने जन्म लेकर अपना सच्चा कल्याण किया है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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