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________________ ८८ सारसमुच्चय समय ज्ञानीको विचार करके अपने मनको रोकना चाहिए । मनको इस तरह संयम साधनमें लगा देना चाहिए कि मनमें उस कामसे ग्लानि हो जावे और फिर दुबारा मन उस खराब कार्यकी ओर न प्रवर्ते । आत्मबल जो अंतराय कर्मके क्षयोपशमसे प्राप्त होता है सो हरएक मानवके पास मौजूद है। उस आत्मबलसे अशुभ मार्गमें जानेकी इच्छाओंको रोकना चाहिए व आत्महित आपसे हो उस मार्ग में जोड़नेका अभ्यास करना चाहिए। अचिरेणैव कालेन फलं प्राप्स्यसि दुर्मते ! विपाकेऽतीव तिक्तस्य कर्मणो यत्त्वया कृतम् ॥१७७॥* अन्वयार्थ-(दुर्मते) हे दुर्बुद्धि ! (त्वया यत् कृतम्) तूने जो कर्म किये हैं (अतीव तिक्तस्य कर्मणः) उन अत्यन्त बुरे कर्मोंके (विपाके) पकने पर (अचिरेण एव कालेन) थोडेसे ही कालमें तू (फलं प्राप्स्यसि) फल प्राप्त करेगा। भावार्थ-कुबुद्धि जीव पाप-कर्मोंको करते हुए भविष्यमें उनका फल बड़ा कटुक होगा, इस बातका विचार नहीं करता है, उस समय असाता वेदनीय आदि पाप कर्मोंमें तीव्र अनुभाग पड़ जाता है। उनका कुछ काल पीछे जब फल प्रकट होता है तब प्राणीको असहनीय दुखोंकी प्राप्ति होती है। ऐसा विचार कर बुद्धिमानको कभी ऐसे काम नहीं करने चाहिए जिनसे अशुभ कर्मोंका बन्ध होता हो। वर्धमानं हि तत्कर्म संज्ञानाद्यो न शोधयेत् । सुप्रभूतभूतसंग्रस्तः स पश्चात् परितप्यते ॥१७८॥ अन्वयार्थ-(यः) जो कोई (तत् हि वर्धमानं कर्म) इस बढ़ते हुए पापकर्मको (संज्ञानात्) सम्यग्ज्ञानके द्वारा (न शोधयेत्) दूर नहीं करता है (सः) वह (सुप्रभूतभूतसंग्रस्तः) अति तीव्र कर्मरूपी भूतसे पकड़ा हुआ (पश्चात) पीछे (परितप्यते) पछताता है। भावार्थ-यदि अज्ञान या मोहके वशीभूत होकर अपनेसे पाप कर्म हो जावे तो उसकी शुद्धि सम्यग्ज्ञानके द्वारा धर्माचरण करके करनी चाहिए। ___ * श्लोक १७७ के बाद अन्य प्रतिमें सिद्धांतसारादिसंग्रहके अनुसार एक श्लोक इस प्रकार है: स्वल्पेनैव कालेन फलं प्राप्स्यसि यत्कृतं । शश्वदात्मकर्मम्यां गोपयत्सुमनागपि ॥१॥ भावार्थ-हे जीव! निरन्तर उपार्जित किये हुए जिन कर्मोंका फल तू थोड़े ही समयमें प्राप्त करेगा, उन कर्मोंसे तुझे अब किंचित् भी अपनी रक्षा करनी चाहिए, अर्थात् उन्हें समभावसे भोग लेना चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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