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________________ ८७ वैराग्यकी आवश्यकता भावार्थ-जो वस्तुके यथार्थ स्वरूपको विचारनेवाले ज्ञानी जीव हैं वे अपने चित्तको सदा निर्मल रखते हैं । विषयोंकी तृष्णासे और उन विषयोंके वियोगसे अपने भावोंको मैला नहीं रखते हैं। वे तत्त्वज्ञानी आत्मसुखके प्रेमी होते हैं । अपने बाँधे हुए कर्मोंके उदयसे जब आपत्तियाँ आ जाती हैं या सम्पत्तियाँ हो जाती है तब दोनों दशाओंमें समभाव रखते हैं। वे जानते हैं कि यह सर्व पुण्यपापका खेल हैं, दोनों ही नाशवन्त हैं। इनके संयोगमें हर्षविषाद करना व्यर्थ है । महात्मा सम्यग्दृष्टि जीव जगतमें ज्ञातादृष्टा बने रहते हैं । दुःख पड़ने पर दुःखी व सुख पडने पर उन्मत्त नहीं होते हैं । परोऽप्युत्पथमापन्नो निषेद्धं युक्त एव सः । किं पुनः स्वमनोऽत्यर्थं विषयोत्पथयायिवत् ॥१७५॥ ___ अन्वयार्थ-(परः उत्पथं आपन्नः अपि) दूसरा कोई कुमार्गगामी हो गया है तो भी (स एव निषेद्धं युक्त) उसे मना ही करना चाहिए यह तो ठीक ही है परन्तु (विषयोत्पथयायिवत्) विषयोंके कुमार्गमें जानेवाले (स्वमनः) अपने मनको (अत्यर्थ) अतिशयरूप (किं पुनः) क्यों नहीं रोकना चाहिए ? अर्थात् अवश्य रोकना चाहिए | __ भावार्थ-जो मानव दूसरोंको कुमार्गसे हटाकर सुमार्गपर चलनेका उपदेश देते हैं परन्तु अपने मनको विषयोंसे नहीं रोकते हैं उनके लिए आचार्य कहते हैं कि भाई ! जैसे दूसरोंको कुमार्गसे रोकना उचित है वैसे अपने मनको भी तो विषयोंसे रोकना चाहिए। दूसरे हमारे उपदेशसे सुमार्गपर आ जावेंगे या कुमार्गसे बचेंगे इसका कोई निश्चय नहीं है। उपदेशदाताका उपदेश दूसरे पर असर करेगा तब ही वह मान सकेगा परन्तु अपना मन तो अपने आधीन है। जब हम भले प्रकार अपने मनको समझावेंगे तो हम अपने मनको कुमार्ग पर जानेसे रोक सकेंगे । इसलिए हमें अपने आपको विषयोंके मार्गसे अवश्य बचाना चाहिए। अज्ञानाद्यदि मोहाद्यत्कृतं कर्म सुकुत्सितम् । व्यावर्त्तयेन्मनस्तस्मात् पुनस्तन समाचरेत् ॥१७६॥ अन्वयार्थ-(यदि) यदि (अज्ञानात् मोहात्) अज्ञानके वशीभूत होकर या मोहके आधीन होकर (यत् सुकुत्सितम् कर्म कृतं) जो कोई अशुभ काम किया गया (तस्मात् मनः व्यावर्तयेत्) उससे मनको हटा लेवें (पुनः) फिर (तत् न) उस कामको नहीं (समाचरेत्) करें। भावार्थ-बहुधा अशुभ काम या तो अज्ञानसे, बिना समझे हो जाते हैं, या जानने पर भी मोहके प्रभावसे-कषायके तीव्र उदयसे हो जाते हैं । उस Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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