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________________ गाथा २६ ] प्रथमाधिकारः [७१ एकप्रदेशः अपि अणुः नानास्कन्धप्रदेशतः भवति । बहुदेशः उपचारात् तेन च कायः भणन्ति सर्वज्ञाः ॥ २६ ॥ व्याख्या- "एयपदेसो वि अणू णाणाखंधप्पदेसदो होदि बहुदेसो" एकप्रदेशोऽपि पुद्गलपरमाणु नास्कन्धरूपबहुप्रदेशतः सकाशाद्वहुप्रदेशो भवति । "उवयारा" उपचाराद् व्यवहारनयात् "तेण य काो भणंति सबबहु" तेन कारणेन कायमिति सर्वज्ञा भणन्तीति । तथाहि यथायं परमात्मा शुद्धनिश्चयनयेन द्रव्यरूपेण शुद्धस्तथैकोऽप्यनादिकर्मबन्धवशास्निग्धरूक्षस्थानीयरागद्वषाभ्यां परिणम्य नरनारकादिविभावपर्यायरूपेण व्यवहारेण बहुविधो भवति । तथा पुद्गलपरमाणुरपि स्वभावेनैकोऽपि शुद्धोऽपि रागद्वषस्थानीयवन्धयोग्यस्निग्धरूक्षगुणाभ्यां परिणम्य द्विअणुकादिस्कन्धरूपविभावपर्याययैर्बहुविधोबहुप्रदेशो भवति तेन कारणेन बहुप्रदेशलक्षणकायत्वकारणत्वादुपचारेण कायो भएयते । अथ मतं यथा पुद्गलपरमाणोद्रव्यरूपेणैकस्यापि द्वयणुकादिस्कन्धपर्यायरूपेण बहुप्रदेशरूपं कायत्वं जातं तथा कालाणोरपि द्रव्येणैकस्यापि पर्यायेण कायत्वं भवत्विति ? गाथार्थ :-एकप्रदेशी भी परमाणु अनेक स्कन्ध रूप बहुप्रदेशी हो सकता है इस कारण सर्वज्ञदेव उपचार से पुद्गल परमाणु को 'काय' कहते हैं ॥ २६॥ वृत्त्यर्थ :-"एयपदेसो वि अणू णाणाखंधप्पदेसदो होदि बहुदेसो” यद्यपि पुद्गल परमाणु एकप्रदेशी है तथापि अनेक प्रकार के द्विअणुक आदि स्कन्ध रूप बहुत प्रदेशों के कारण बहुप्रदेशी होता है । “उवयारा" उपचार से अथवा व्यवहारनय से। "तेण य काओ भणंति सव्वण्हु' इसी कारण सर्वज्ञ देव उस पुद्गल परमाणु को काय कहते हैं। जैसे यह परमात्मा शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा द्रव्य रूप से शुद्ध तथा एक है तो भी अनादिकमबन्धन के कारण स्निग्ध तथा रूक्ष गुणों के स्थानीय (बजाय) राग, द्वष रूप परिणमन करके व्यवहारनय के द्वारा मनुष्य, नारक आदि विभाव पर्याय रूप अनेक प्रकार का होता है, उसी प्रकार पुद्गल परमाणु भी यद्यपि स्वभाव से एक और शुद्ध है तो भी रागद्वष के स्थानभूत जो बन्ध के योग्य स्निग्ध, रूक्ष गुणों के द्वारा परिणमन करके द्वि-अणुक आदि स्कन्ध रूप जो विभाव पर्याय हैं उनके द्वारा अनेक प्रकार का बहुत प्रदेशों वाला हो जाता है। इसीलिये बहु-प्रदेशता रूप कायत्व का कारण होने से पुद्गल परमाणु को सर्वज्ञ भगवान् व्यवहार से काय कहते हैं। यदि कोई ऐसा कहे कि जैसे द्रव्य रूप से एक भी पुद्गल परमाणु के द्वि-अणुक आदि स्कन्ध पर्याय द्वारा बहु-प्रदेश रूप कायत्व सिद्ध हुआ है। ऐसे ही द्रव्य रूप से एक होने पर भी कालाणु के पर्याय द्वारा कायत्य सिद्ध होता है । इसका परिहार करते हैं कि स्निग्ध Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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