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________________ गाथा २४ ] प्रथमाधिकारः . [६७ व्याख्या- “संति जदो तेणेदे अत्थित्ति भणंति जिणवरा" सन्ति विद्यन्ते यत एते जीवाद्याकाशपर्यन्ताः पञ्च तेन कारणेनैतेऽस्तीति भणंति जिणवराः सर्वज्ञाः । “जमा काया इव बहुदेसा तमा काया य" यस्मात्काया इव बहुप्रदेशास्तस्मात्कारणात्कायाश्च भणंति जिनवराः । “अस्थिकाया य" एवं न केवलं पूर्वोक्तप्रकारेणास्तित्वेन युक्ता अस्तिसंज्ञास्तथैव कायत्वेन युक्ताः कायसंज्ञा भवन्ति किन्तूभयमेलापकेनास्तिकायसंज्ञाश्च भवन्ति । इदानीं संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदेऽप्यस्तित्वेन सहाभेदं दर्शयति । तथाहिशुद्धजीवास्तिकाये सिद्धत्वलक्षणः शुद्धद्रव्यव्यञ्जनपर्यायः, केवलज्ञानादयो विशेषगुणाः अस्तित्ववस्तुत्वागुरुलघुत्वादयः सामान्यगुणाश्च । तथैवाव्याबाधानन्तसुखाद्यनन्तगुणव्यक्तिरूपस्य कार्यसमयसारस्योत्पादो रागादिविभावरहितपरमस्वास्थ्यरूपस्य कारणसमयसारस्य व्ययस्तदुभयाधारभूतपरमात्मद्रव्यत्वेन ध्रौव्यमित्युक्तलक्षणैगुणपर्यायैरुत्पादव्ययध्रौव्यैश्च सह मुक्तावस्थायां संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदेऽपि सत्तारूपेण प्रदेशरूपेण च भेदो गाथार्थ :-"चूकि विद्यमान हैं इसलिये जिनेश्वर ने इनको 'अस्ति' कहा है और ये शरीर के समान बहादेशी हैं इसलिये इनको'काय' कहा है। अस्ति तथा काय दोनों को मिलाने से 'अस्तिकाय' होते हैं ।। २४ ।। वृत्त्यर्थ :- “संति जदो तेणेदे अस्थित्ति भणंति जिणवरा" जीव से आकाश तक पांच द्रव्य विद्यमान हैं इसलिये सर्वज्ञ देव इनको 'अस्ति' कहते हैं। "जह्मा काया इव बहुदेसा तह्मा काया य” और क्योंकि काय अर्थात् शरीर के समान ये बहुत प्रदेशों के धारक हैं; इस कारण जिनेश्वरदेव इनको 'काय' कहते हैं। "अस्थिकाया य" इस प्रकार अस्तित्व से युक्त ये पांचों द्रव्य केवल 'अस्ति' ही नहीं हैं और कायत्व से युक्त होने से केवल 'काय' भी नहीं हैं; किन्तु अस्ति और काय इन दोनों को मिलाने से "अस्तिकाय” संज्ञा के धारक है। अब इन पांचों के संज्ञा लक्षण तथा प्रयोजन आदि से यद्यपि परस्पर भेद है तथापि अस्तित्व के साथ अभेद है यह दर्शाते हैं : जैसे शुद्ध जीवास्तिकाय में सिद्धत्व रूप शुद्ध द्रव्य-व्यञ्जन-पर्याय है; केवल ज्ञान आदि विशेष गुण हैं तथा अस्तित्व, वस्तुत्व और अगुरुलघुत्व आदि सामान्य गुण हैं। तथा मुक्ति दशा में अव्याबाध अनन्तसुख आदि अनन्तगुणों की प्रकटता रूप कार्य समयसार का उत्पाद, रागादि विभाव रहित परम स्वास्थ्य रूप कारण समय-सार का व्यय (नाश) और उत्पाद तथा व्यय इन दोनों का आधारभूत परमात्मा रूप Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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