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________________ [ ४६ गाथा १५ ] प्रथमाधिकारः व्याख्या- "अज्जीवो पुण णेप्रो" अजीवः पुनशेयः । सकलविमलकेवलज्ञानदर्शनद्वयं शुद्धोपयोगः, मरिज्ञानादि पो विकलोऽशुद्धोपयोग इति द्विविधोपयोगः, अव्यक्तसुखदुःखानुभवनरूपा कमफलचेतना, तथैव मतिज्ञानादिमनःपर्ययपर्यन्तमशुद्धोपयोग इति, स्वेहापूर्वेष्टानिष्टविकल्परूपेण विशेषरागद्वेषपरिणमनं कर्मचेतना, केवलज्ञानरूपा शुद्धचेचना इत्युक्तलक्षणोपयोगश्चेतना च यत्र नास्ति स भवत्यजीव इति विज्ञेयः । 'पुण' पुनः पश्चाज्जीवाधिकारानन्तरं । "पुग्गलधम्मो अधम्म आयासं कालो" स च पुद्गलधर्माधर्माकाशकालद्रव्यभेदन पञ्चधा । पूरणगलनस्वभावत्वात्पुद्गल इत्युच्यते । गतिस्थित्यवगाहवर्गना. लक्षणा धर्माधर्माकाशकालाः, "पुग्गल मुत्तो' पुद्गलो मूत्तः । कस्मात् "स्वादिगुणो" रूपादिगुणसहितो यतः । "अमुत्ति सेसा हु" रूपादिगुणाभावादमूर्ता भवन्ति पुद्गलाच्छेषाश्चत्वार इति । तथाहि-यथा अनन्तज्ञानदर्शनसुखवीर्यगुणचतुष्टयं सर्वजीवसाधारणं तथा रूपरसगन्धस्पर्शगुणचतुष्टयं सर्वपुद्गलसाधारणं, यथा च शुद्धबुद्ध कस्वभावसिद्धजीवे अनन्तचतुष्टयमतीन्द्रियं तथैव शुद्धपुद्गलपरमाणुद्रव्ये वृत्त्यर्थः- "अजीवो पुण णेो” अजीव पदार्थ जानना चाहिये । पूर्ण व निर्मल कंवल ज्ञान, केवल दर्शन ये दोनों शुद्ध उपयोग हैं और मति ज्ञान आदि रूप विकल अशुद्ध उपयोग है; इस तरह उपयोग दो प्रकार का है । अव्यक्त सुखदुःखानुभव स्वरूप "कर्मफलचेतना" है । तथा मतिज्ञान आदि मनःपर्यय तक चारों ज्ञान रूप अशुद्ध उपयोग है। निज चेष्टा पूर्वक इष्ट, अनिष्ट विकल्प रूप से विशेष रागद्वेष रूप परिणाम "कर्मचेतना" है । केवल ज्ञान रूप "शुद्ध चेतना” है। इस तरह पूर्वोक्त लक्षण वाला उपयोग तथा चेतना ये जिसमें नहीं हैं वह "जीव” है ऐसा जानना चाहिये । “पुण" जीव अधिकार के पचात् अजीव अधिकार है । “पुग्गल धम्मो धम्म आयासं कालो" वह अजीव पुद्गल, धर्म, धर्म, आकाश और काल द्रव्य के भेद से पाँच प्रकार का है। पूरण तथा गलन स्वभाव सहित होने से पुद्गल कहा जाता है (पूरने और गलने के स्वभाव वाला पुद्गल है)। कर्म से गति; स्थिति; अवगाह और वर्तना लक्षण वाले धर्म; अधर्म; आकाश और काल ये चारों द्रव्य हैं। (गति में सहायक धर्म; ठहरने में सहायक अधर्म; अवगाह देने वाला आकाश, वर्तना लक्षण वाला काल द्रव्य है)। "पुग्गल मुत्तो” पुद्गल द्रव्य मूर्त है। क्योंकि पुद्गल "रूवादिगुणो” रूप आदि गुणों से सहित है। "अमुत्ति सेसा हु" पुद्गल के सिवाय शेष धर्म; अधर्म; आकाश और काल ये चारों द्रव्य रूप आदि गुणों के न होने से अमूर्तिक हैं। जैसे अनन्त ज्ञान; अनन्त दर्शन; अनन्त सुख तथा अनन्त वीर्य ये चारों गुण सब जीवों में साधारण हैं; उसी प्रकार रूप, रस, गंध और स्पर्श पुद्गलों में साधारण हैं। जिस प्रकार शुद्ध-बुद्ध एक स्वभावधारी सिद्ध में अनन्त चतुष्टय अतीन्द्रिय है; उसी प्रकार शुद्ध पुद्गल Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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