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________________ [ गाथा १५ बृहद् द्रव्य संग्रहः तद्योग्याशुभलेश्यापरिणतो जघन्यान्तरात्मा, क्षीणकषायगुणस्थाने पुनरुत्कृष्टः, अविरतक्षीणकषाययोर्मध्ये मध्यमः, सयोग्ययोगिगुणस्थानद्वये विवक्षितैकदेशशुद्धनयेन सिद्धसदृशः परमात्मा, सिद्धस्तु साक्षात्परमात्मेति । अत्र बहिरात्मा हेय:, उपादेयभूतस्यानन्त सुख साधकत्वादन्तरात्मोपादेयः परमात्मा पुनः साक्षादुपादेय इत्यभिप्रायः । एवं षड्द्रव्य पञ्चास्तिकायप्रतिपादक प्रथमाधिकारमध्ये नमस्कारादिचतुर्दशगाथाभिर्नवभिरन्तरस्थलै जीवद्रव्यकथनरूपेण प्रथमोऽन्तराधिकारः समाप्तः ४८ ] ॥ १४ ॥ अतः परं यद्यपि शुद्धबुद्धैकस्वभावं परमात्मद्रव्यमुपादेयं भवति तथापि हेयरूपस्याजीवद्रव्यस्य गाथाष्टकेन व्याख्यानं करोति । कस्मादिति चेत ? हेयतव परिज्ञाने सति पश्चादुपादेयस्वीकारो भवतीति हेतोः । तद्यथा - अजीव पु त्र पुग्गलधम्मो अधम्म श्रायासं । कालो पुग्गल मुत्तो रुवादिगुणो अमुत्ति सेसा दु (हु) ।। १५ ।। अजीवः पुनः ज्ञेयः पुद्गलः धर्मः धर्मः श्राकाशम् । कालः पुद्गलः मूर्त्तः रूपादिगुणः श्रमूर्त्ताः शेषाः तु ॥ १५ ॥ उत्कृष्ट अन्तरात्मा है । दिरत और क्षीणकषाय गुण स्थानों के बीच में जो सात गुणस्थान हैं उनमें मध्यम - अन्तरात्मा है । सयोगी और अयोगी इन दोनों गुणस्थानों में विवक्षित एक देश शुद्ध नय की अपेक्षा सिद्ध के समान परमात्मा है और सिद्ध तो साक्षात् परमात्मा है । यहाँ बहिरात्मा तो हेय है और उपादेयभूत ( परमात्म) के अनन्त सुखका साधक होने से अन्तरात्मा उपादेय है और परमात्मा साक्षात् उपादेय है; ऐसा अभिप्राय है । इस प्रकार छह द्रव्य और पंच अस्तिकाय के प्रतिपादन करने वाले प्रथम अधिकार में नमस्कार गाथा आदि चौदह गाथाओं द्वारा, ६ मव्य स्थलों द्वारा जीव द्रव्य के कथन रूप प्रथम अन्तर अधिकार समाप्त हुआ ॥ १४ ॥ उसके पश्चात् यद्यपि शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव परमात्मा द्रव्य ही उपादेय है तो भी हेय रूप अजीव द्रव्य का आठ गाथाओं द्वारा निरूपण करते हैं । क्यों करते हो ? क्योंकि पहले हेयतत्त्व का ज्ञान होनेपर फिर उपादेय पदार्थ स्वीकार होता है । अजीव द्रव्य इस प्रकार है Jain Education International गाथार्थ :- पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल ये अजीवद्रव्य जानने चाहियें। इनमें रूप आदि गुणों का धारक पुद्गल मूर्त्तिमान् है और शेष चारों द्रव्य श्रमूर्त्तिक हैं ।। १५ ।। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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