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________________ गाथा १२] प्रथमाधिकारः [ २६ युक्ताः कुन्थुपिपीलिकायूकामत्कुणादयस्त्रीन्द्रयाः, स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुरिन्द्रियचतुष्टययुक्ता दंशमशकमक्षिकाभ्रमरादयश्चतुरिन्द्रियाः, स्पर्शनरसनघाणचक्षुःश्रोत्रेन्द्रि. यपञ्चयुक्ता मनुष्यादयः पञ्चेन्द्रिया इति । अयमत्रार्थ:-विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावनिजपरमात्मस्वरूपभावनोत्पन्नपारमार्थिकसुखमलभमाना इन्द्रियसुखासक्ता एकेन्द्रियादिजीवानां वधं कृत्वा त्रसस्थावरा भवन्तीत्युक्तं पूर्व तस्मात्त्रसस्थावरोत्पत्तिविनाशार्थ तत्रैव परमात्मनि भावना कर्त्तव्येति । ११ । । तदेव त्रसस्थावरत्वं चतुर्दशजीवसमासरूपेण व्यक्तीकरोति : समणा अमणा णेया पंचिंदिय णिम्मणा परे सव्वे । बादरसुहमेइंदी सव्वे पजत्त इदरा य ॥ १२ ॥ समनस्काः अमनस्काः ज्ञेयाः पंचेन्द्रियाः निर्मनस्काः परे सर्वे । बादरसूक्ष्मैकेन्द्रियाः सर्वे पर्याप्ताः इतरे च ॥ १२ ॥ व्याख्या:-"समणा अमणा" समस्तशुभाशुभविकल्पातीतपरमात्मद्रव्यविल तीन इन्द्रियों वाले कुन्थु, पिपीलिका (कीड़ी), जू, खटमल आदि तीन इन्द्रिय जीव हैं। स्पर्शन, रसना, घ्राण और नेत्र इन चार इन्द्रियों वाले डांस, मच्छर, मक्खी. भौंरा, वर आदि चतुरिन्द्रिय जीव हैं। स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण इन पांचों इन्द्रियों वाले मनुष्य आदि पंचेन्द्रिय जीव हैं। सारांश यह है कि निर्मल ज्ञान, दर्शन स्वभाव निज परमात्मस्वरूप की भावना से उत्पन्न जो पारमार्थिक सुख है उसको न पाकर जीव इन्द्रियों के सुख में आसक्त होकर जो एकेन्द्रियादि जीवों की हिंसा करते हैं उससे त्रस तथा स्थावर होते हैं, ऐसा पहले कह चुके हैं, इस कारण त्रस, स्थावरों में जो उत्पत्ति होती है, उसको मिटाने के लिये उसी पूर्वोक्त प्रकार से परमात्मा में भावना करनी चाहिये ।। ११ ॥ अब उसी त्रस तथा स्थावर पन को १४ जीवसमासों द्वारा प्रकट करते हैं: गाथार्थः-पंचेन्द्रिय जीव संज्ञी और असंज्ञी ऐसे दो तरह के जानने चाहिये, शेष सब जीव मन रहित असंज्ञी हैं । एकेन्द्रिय जोव बादर और सूक्ष्म दो प्रकार के हैं। और ये सब जीव पर्याप्त तथा अपर्याप्त होते हैं । (पंचेन्द्रिसंज्ञी, पंचेन्द्रिय असंज्ञी, दो-इन्द्रिय, ते-इन्द्रिय, चौ-इन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय इन सातों के पर्याप्त अपर्याप्त के भेद से जीव समास १४ होते हैं)।।। १२ ।। वृत्त्यर्थः--"समणां अमणा" समस्त शुभ अशुभ विकल्पों से रहित जो परमात्मरूप Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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