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________________ २८ ] बृहद्र्व्य संग्रहः [गाथा ११ पुढविजलतेयवाऊ वण्णफफदी विविहथावरेइंदी । विगतिगचदुपंचक्खा तसजीवा होंति संखादी ॥ ११ ॥ पृथिवीजलतेजोवायुवनस्पतयः विविधस्थावरै केन्द्रियाः । द्विकत्रिकचतुःपञ्चाक्षाः त्रसजीवाः भवन्ति शंखादयः ॥ ११ ॥ व्याख्या- "होति" इत्यादिव्याख्यानं क्रियते । “होति" अतीन्द्रियामूर्तनिजपरमात्मस्वभावानुभूतिजनितसुखामृतरसस्वभावमलभमानास्तुच्छमपीन्द्रियसुख - मभिलषन्ति छअस्थाः, तदासक्ताः सन्त एकेन्द्रियादिजीवानां घातं कुर्वन्ति तेनोपार्जितं यत्त्रसस्थावरनामकर्म तदुदयेन जीवा भवन्ति । कथंमता भवन्ति ? "पुढविजलतेयवाऊ वणफ्फदी विविहथावरेइंदी" पृथिव्यप्ते जोवायुवनस्पतयः । कतिसंख्यापेता ? विविधा आगमकथितस्वकीयस्वकीयान्तर्भेदैर्बहुविधाः। स्थावरनामकर्मोदयेन स्थावरा, एकेन्द्रियजातिनामकर्मोदयेन स्पर्शनेन्द्रिययुक्ता एकेन्द्रियाः, न केवलमित्थं भूताः स्थावरा भवन्ति । “विगतिगचदुपंचक्खा तसजीवा" द्वित्रिचतुः पञ्चाक्षास्त्रसनामकर्मोदयेन त्रसजीता भवन्ति । ते च कथंभूताः ? "संखादः” शङ्खादयः। स्पर्शनरसनेन्द्रियद्वययुक्ताः शङ्खशुक्तिकृम्यादयो द्वीन्द्रियाः । स्पर्शनरसनघ्राणेन्द्रियत्रय गाथार्थः-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति इन भेदों से नाना प्रकार के स्थावर जीव हैं और (ये सब एक स्पर्शन इन्द्रिय के ही धारक हैं) तथा शंख आदि दो, तीन, चार और पांच इन्द्रियों के धारक त्रस जीव होते हैं । ११ । वृत्त्यर्थः-यहाँ होति' आदि पदों की व्याख्या की जाती है। 'होति' अल्पज्ञ, जीव अतीन्द्रिय अमूर्तिक अपने परमात्म स्वभाव के अनुभव से उत्पन्न सुखरूपी अमृत रस को न पा करके, इन्द्रियों से उत्पन्न तुच्छ सुख की अभिलाषा करते हैं। उस इन्द्रियजनित सुख में आसक्त होकर एकेन्द्रिय आदि जीवों का घात करते हैं; उस जीव-घात से उपार्जन किये त्रस, स्थावर नाम कर्म के उदय ले स्वयं त्रस, स्थावर होते हैं। किस प्रकार होते हैं ? "पुढविजलयतेयवाऊ वणप्फदीविविहथावरेइन्दी" पृथिवी, जल, तेज, वायु तथा वनस्पति जीव होते हैं । वे कितने हैं ? अनेक प्रकार के हैं । शास्त्र में कहे हुए अपने २ अवान्तर भेद से बहुत प्रकार के हैं । स्थावर नाम कर्म के उदय से स्थावर, एकेन्द्रिय जाति कर्म के उदय से स्पर्शन इन्द्रिय सहित एकेन्द्रिय होते हैं। इस प्रकार से केवल स्थावर ही नहीं होते बल्कि “विगतिगचदुपंचक्खा तसजीवा" दो, तीन, चार तथा पाँच इन्द्रियों वाले त्रस नाम कर्म के उदय से स जीव भी होते हैं । वे कैसे हैं ? “संखादी" शंख आदि । स्पर्शन और रसना इन दो इन्द्रियों वाले शंख, कृमि, सीप आदि दो इन्द्रिय जीव हैं। स्पर्शन, रसना तथा प्राण इन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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