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________________ गाथा २] प्रथमाधिकारः भूतार्थनयेन निष्क्रियटङ्कोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावोऽयं जीवः तथाप्यभूतार्थनयेन मनोवचनकायब्यापारोत्पादककर्मसहितत्वेन शुभाशुभकर्मकत्वात् कर्ता। “सदेहपरिमाणो" यद्यपि निश्चयेन महजशुद्धलोकाकाशप्रमितासंख्येयप्रदेशस्तथापि व्यवहारेणानादिकर्मबन्धाधीनत्वेन शरीरनामकर्मोदयजनितोपसंहारविस्ताराधीनत्वात् घटादिभाजनस्थप्रदीपवत् स्वदेहपरिमाणः । “भोत्ता" यद्यपि शुद्धद्रव्यार्थिकन येन रागादिविकल्पोपाधिरहितस्वात्मोत्थसुखामृतभोक्ता, तथाप्यशुद्धनयेन तथाविधसुखामृतभोजनाभावाच्छ भाशुभकर्मजनितसुखदुःखभोक्त त्वाद्भोक्ता । “संसारत्थो" यद्यपि शुद्धनिश्वयनयेन निःसंमारनित्यानन्दैकस्वभावस्तथाप्यशुद्धनयेन द्रव्यक्षेत्रकालभगभावपश्चप्रकारसंसारे तिष्ठतीति संमारस्थः । “सिद्धो" व्यवहारेण स्वात्मोपलब्धिलक्षणसिद्धत्वप्रतिपक्षभूतकर्मोदयेन यद्यप्यसिद्धस्तथापि निश्चयनयेनानन्तज्ञानानन्तगुणस्वभावत्वात् सिद्धः। “सो" स एवं गुणविशिष्टो जीवः । “विस्ससोड्ढगई" यद्यपि व्यवहारेण चतुर्गतिजनककर्मोदयवशेनोद्ध धिस्तिर्यग्गतिस्वभावस्तथापि निश्चयेन केवलज्ञानाद्यनन्तगुणावाप्तिलक्षणमोक्षगमनकाले विस्रसा स्वभावेनोद्धर्वगतिश्चेति । अत्र पदखण्डनारूपेण शब्दार्थः कथितः, शुद्धाशुद्धनयद्वयविभागेन सहित होने के कारण शुभ और अशुभ काँका करनेवाला होनेसे कर्ता है । "सदेहपरिमाणो" यद्यपि जीव निश्चयनय से लोकाकारा के प्रमाण असंख्यात स्वाभाविक शुद्ध प्रदेशों का धारक है, तो भी व्यवहार से अनादि कर्मबंधवशात् शरीर कर्म के उदय से उत्पन्न, संकोच तथा विस्तार के अधीन होने से, घट आदि में स्थित दीपक की तरह, अपने देह के बराबर है ! "भोत्ता" यद्यपि जीव शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से रागादिविकल्प रूप उपाधियों से रहित तथा अपनी आत्मा से उत्पन्न सुख रूपी अमृत का भोगने वाला है, तो भी अशुद्धनय की अपेक्षा उस प्रकार के सुख अमृत भोजन के प्रभाव से शुभ कर्म से उत्पन्न सुख और अशुभ कर्म से उत्पन्न दुख का भोगने वाला होने के कारण भोक्ता है । "संसारत्थो" यद्यपि जीव शुद्ध निश्चयनय से संसार रहित है और नित्य आनन्द एक स्वभाव का धारक है, फिर भी अशुद्धनय की अपेक्षा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भाव इन पाँच प्रकार के संसार में रहता है; इस कारण संमारस्थ है । "सिद्धो” यद्धपि यह जीव व्यवहारनय से निज-आत्मा की प्राप्तिस्वरूप जो सिद्धत्व है उसके प्रतिपक्षी कर्मों के उदय से प्रसिद्ध है; तोभी निश्चयनय से अनन्त ज्ञान और अनन्त-गुण-स्वभाव होने से सिद्ध है । "सो” वह इस प्रकार के गुणों से युक्त जीव है । "विस्ससोडढगई" यद्यपि व्यवहार से चार गतियों को उत्पन्न करने वाले कर्मों के उदय-वश ऊँचा, नीचा तथा तिरछा गमन करनेवाला है, फिर भी निश्चयनय से केवल ज्ञान आदि अनन्त गुणों की प्राप्ति स्वरूप जो मोक्ष है उसमें पहुँचने के समय स्वभाव से ऊर्ध्वगमन करने वाला है । यहाँ पर खंडान्वय के ढंग से शब्दों का अर्थ कहा; तथा शुद्ध, अशुद्ध नयों के विभाग से नय का अर्थ भी कहा है । अब मत का अर्थ कहते हैं। चार्वाक के लिये Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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