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________________ वृहद्र्व्य संग्रह [ गाथा २ संक्षेपेण सूचयामीति अभिप्रायं मनसि सम्प्रधार्य कथनसूत्रमिति निरूपयति : जीवो उवोगमत्रो अमुत्ति कत्ता सदेहपरिमाणो । भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्ससोड्ढगई ॥ २ ॥ जीवः उपयोगमयः अमूर्तिः कर्ता स्वदेहपरिमाणः । भोक्ता संसारस्थः सिद्धः सः विनसा ऊर्ध्वगतिः ॥ २ ॥ व्याख्या-"जीवो" शुद्धनिश्चयनयेनादिमध्यान्तवर्जितस्वपरप्रकाशकाविनश्वरनिरुपाधिशुद्धचैतन्यलक्षणनिश्चयप्राणेन यद्यपि जीवति, तथाप्यशुद्धनयेनानादिकर्मवन्धवशादशुद्धद्रव्यभावप्राणैर्जीवतीति जीवः । “उवोगमत्रो" शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन यद्यपि सकलविमलकेवलज्ञानदर्शनोपयोगमयस्तथाप्यशुद्धनयेन क्षायोपशमिकज्ञानदर्शननिवृत्तत्वात् ज्ञानदर्शनोपयोगमयो भवति । "अमुत्ति" यद्यपि व्यवहारेण मूर्तकाधीनत्वेन स्पर्शरसगन्धवर्णवत्या मूर्त्या सहितत्वान्मूस्तथापि परमार्थेनामूर्तातीन्द्रियशुद्धबुधैकस्वभावत्वादमूर्तः । “कत्ता" यद्यपि सम्बन्ध में नौ अधिकारों को मैं संक्षेप से सूचित करता हूँ।' इस अभिप्राय को मन में धारण करके श्रीनेमिचन्द्र आचार्य जीव आदि नौ अधिकारों को कहने वाले सूत्र का निरूपण करते हैं : गाथार्थ जो जीता है; उपयोगमय है; अमूर्तिक है; कर्ता है; अपने शरीर के बराबर है; भोक्ता है; संसार में स्थित है, सिद्ध है और स्वभाव से ऊर्ध्वगमन करने वाला है, वह जीव है ।। २ ॥ वृत्त्यर्थः-"जीवो" यह जीव यद्यपि शुद्धनिश्चयनय से आदि, मध्य और अन्त से रहित, निज तथा अन्य का प्रकाशक, अविनाशी उपाधिरहित और शुद्ध चैतन्य लक्षणवाले निश्चय प्राणते जीता है, तथापि अशुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा अनादिकर्मबन्धन के वश अशुद्ध द्रव्यप्राण और भावप्राण से जीता है; इसलिये जीव है । "उवोगमओ” यद्यपि शुद्धद्रव्यार्थिकनय से पूर्ण निर्मल; केवल ज्ञान व दर्शन दो उपयोगमय जीव है; तो भी अशुद्धनय से ज्ञायोपशमिक-ज्ञान और दर्शन से बना हुआ है। इस कारण ज्ञानदर्शनोपयोगमय है । "अमुत्ति" यद्यपि जीव व्यवहारनयसे मूर्तिककर्मों के अधीन होने से स्पर्श, रस, गंध और वर्णवाली मूर्तिसे सहित होने के कारण मूर्तिक है; तो भी निश्वयनय से अमूर्तिक, इन्द्रियों के अगोचर, शुद्ध, बुद्धरूप एक स्वभाव का धारक होने से अमूर्तिक है। "कत्ता" यद्यपि यह जीव निश्चयनय से क्रियारहित, टंकोत्कीर्ण-अविचल ज्ञायक एक स्वभाव का धारक है; तथापि व्यवहारनयसे मन, वचन, काय के ब्यापार को उत्पन्न करने वाले कर्मों से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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