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________________ गाथा २०-२५] लघुद्रव्यसंग्रहः [२३६ . अर्थ–'णासइ णर-पज्जाओ' नर ( मनुष्य ) पर्याय नष्ट होती है, 'उप्पज्जा देवपज्जो देव पर्याय उत्पन्न होती है, 'तत्थ जीवो स एव' तथा जीव वह का वह ही रहता है, 'सव्वस्स भगुप्पाया धुवा एवं' इस ही प्रकार सर्व द्रव्यों के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य होता है ।२०। उप्पादप्पद्धंसा वच्थूणं होंति पजय-णाएण (णयण)। दव्वट्ठिएण णिच्चा बोधव्वा सव्वजिणवुत्ता ॥२१॥ अर्थ-'उप्पादप्पद्धसा वत्थूणं होंति पज्जय-णएण' वस्तु में उत्पाद तथा व्यय पर्याय-नय से होता है, 'दव्वठ्ठिएण णिच्चा बोधव्वा' द्रव्य-दृष्टि से (वस्तु) नित्य (धौव्य) जाननी चाहिये; 'सव्वजिणवुत्ता' श्रीसर्वज्ञ जिनेन्द्रदेव द्वारा ऐसा कहा गया है ॥२१॥ एवं अहिगयसुत्तो सट्ठाणजुदो मणो णिरु भित्ता । छंडउ रायं रोसं जइ इच्छइ कम्मणो णास (णासं)॥ २२॥ अर्थ-'जइ इच्छइ कम्मणो णासं' यदि कर्मों का नाश करना चाहते हो तो ‘एवं अहिगयसुत्तो सट्ठाणजुदो मणो णिरु भित्ता' इस प्रकार सूत्र से अभिगत होकर (परमागम के ज्ञाता होकर), काय को निश्चल करके और मन को स्थिर करके 'छंडउ रायं रोसं' राग तथा द्वष को छोड़ो ॥ २२ ॥ विसएसु पवट्टतं चित्रं धारेत्त अप्पणो अप्पा । झायइ अप्पाणेणं जो सो पावेइ खलु सेयं ॥ २३॥ अर्थ-'जो अप्पा' जो आत्मा 'विसएसु पवट्टतं चित्त धारेत्त' विषयों में लगे हुए मन को रोक कर, 'अप्पणो झायइ अप्पाणेणं' अपनी आत्मा को अपने द्वारा ध्याता है, 'सो पावेइ खलु सेयं' वह (आत्मा) वास्तव में कल्याण (सुख) को पाता है ॥ २३ ॥ सम्म जीवादीया णच्चा सम्मं सुकित्तिदा जेहिं । मोहगयकेसरीणं णमो णमो ठाण साहूणं ॥ २४॥ अर्थ-'सम्म जीवादीयाणच्चा' जीवादि को सम्यक प्रकार जानकर 'जेहिं सम्म सुकित्तिदा' जिन्होंने उन जीवादि का भले प्रकार वर्णन किया है, 'मोहगयकेसरीणं णमो णमो ठाण साहूणं' जो मोहरूपी गज ( हस्ती) के लिये केसरी (सिंह) के समान हैं, उन साधुओं को (हमारा) नमस्कार होऊ नमस्कार होऊ ।। २४ ।। सोमच्छलेण रइया पयस्थ-लक्खणकराउ गाहारो। भव्वुवयारणिमित्त गणिणा सिरिणेमिचंदेण ॥ २५ ॥ अर्थ-'सोमच्छलेण' श्री सोम (श्रेष्ठी) के निमित्त से 'भव्वुवयारणिमित्त' भव्य जीवों के उपकार के लिये 'सिरिणेमिचंदेण गणिणा' श्री नेमिचन्द्र आचार्य द्वारा 'पयत्त्थलक्खणकराउ गाहाओ' पदार्थों का लक्षण कहनेवाली गाथायें 'रइया' रची गई हैं ।।२।। • + Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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