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________________ गाथा ५८ ] तृतीयोऽधिकारः [२३३ द्रव्यसंग्रहं इमं मुनिनाथाः दोषसंचयच्युताः श्रुतपूर्णाः। शोधयन्तु तनुश्रुतधरेण नेमिचन्द्रमुनिना भणितं यत् ॥ ५८ ॥ व्याख्या- 'सोधयंतु" शुद्धं कुर्वन्तु । के कर्तारः ? "मुणिणाहा' मुनिनाथा मुनिप्रधानाः । किं विशिष्टाः ? "दोससंचयचुदा" निर्दोषपरमात्मनो विलक्षणा ये रागादिदोषास्तथैव च निर्दोषपरमात्मादितत्त्वपरिज्ञानविषये संशयविमोहविभ्रमास्तैश्च्युता रहिता दोषसंचयच्युताः। पुनरपि कथम्भूताः ? “सुदपुण्णा" वर्तमानपरमागमाभिधानद्रव्यश्रुतेन तथैव तदाधारोत्पन्ननिर्विकारस्वसम्वेदनज्ञानरूपभावश्रुतेन च पूर्णाः समग्राः श्रुतपूर्णाः । कं शोधयन्तु ? “दव्वसंगहमिणं" शुद्धबुद्धकस्वभावपरमात्मादिद्रव्याणां संगृहो द्रव्यसंग्रहस्तं द्रव्यसंग्रहाभिधानम् गन्थमिमं प्रत्यक्षीभूतम् । किं विशिष्टं ? "भणियं जं" भणितः प्रतिपादितो यो गून्थः । केन क भूतेन ? "णेमिचन्दमुणिणा" श्री नेमिचन्द्रमुनिना श्री नेमिचन्द्रसिद्धान्तिदेवाभिधानेन मुनिना सम्यग्दर्शनादिनिश्चयव्यवहाररूपपञ्चाचारोपेताचार्येण । कथम्भूतेन ? “तणुसुत्तधरेण" तनुश्रुतधरेण तनुश्रुतं स्तोकं श्रुतं तद्धरतीति तनुश्रुतधरस्तेन । इति क्रियाकारकसम्बन्धः । एवं ध्यानोपसंहारगाथात्रयेण, औद्धत्यपरिहार्थ प्राकृतवृत्तेन च द्वितीयान्तराधिकारे तृतीयं स्थलं गतम् ।५८। इत्यन्तराधिकारद्वयेन विंशतिगाथाभिर्मोक्षमार्गप्रतिपादकनामा तृतीयोऽधिकारः समाप्तः वृत्त्यर्थ :--'सोधयंतु' शुद्ध करें । कौन शुद्ध करें ? 'मुणिणाहा' मुनिनाथ, मुनियों में प्रधान अर्थात् आचार्य । कैसे हैं वे आचार्य ? 'दोससंचयचुदा' निर्दोष-परमात्मा से विलक्षण जो राग आदि दोष तथा निर्दोष-परमात्मादि तत्त्वों के जानने में संशय-विमोह-विभ्रमरूप दोष, इन दोषों से रहित होने से, दोषों से रहित हैं। फिर कैसे हैं ? 'सुदपुण्णा ' वर्तमान परमागम नामक द्रव्यश्रुत से तथा उस परमागम के आधार से उत्पन्न निर्विकार-स्व-अनुभव रूप भावश्रुत से परिपूर्ण होने से श्रुत पूर्ण हैं। किसको शुद्ध करें ? 'दव्वसंगहमिणं' शुद्ध-बुद्धएकस्वभाव परमात्मा आदि द्रव्यों के संग्रह रूप जो द्रव्यसंग्रह. इस प्रत्यक्षीभूत 'द्रव्यसंग्रह' नामक ग्रन्थ को । कैसे द्रव्यसंग्रह को ? 'भणियं ज' जिस ग्रन्थ को कहा है। किसने कहा है? 'णेमिचन्दमुणिणा' सम्यग्दर्शन आदि निश्चय-व्यवहार रूप पंच-आचार सहित आचार्य 'श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव' नामक मुनि ने । कैसे नेमिचन्द्र आचार्य ने ? 'तणुसुत्तधरण' अल्पश्रुतज्ञानी ने । जो स्तोक श्रुत को धारण करे वह अल्प-श्रुत-ज्ञानी है । इस प्रकार क्रिया और कारकों का सम्बन्ध है। इस प्रकार ध्यान के उपसंहार रूप तोन गाथाओं से तथा ज्ञान के अभिमान के परिहार के लिये एक प्राकृत छन्द से द्वितीय अन्तराधिकार में तृतीय स्थल समाप्त हुआ ॥ ५८ ॥ ऐसे दो अन्तराधिकारों द्वारा बीस गाथाओं से मोक्षमार्ग-प्रतिपादक तृतीयाधिकारसमाप्त हुआ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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