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________________ वृहद् द्रव्य संग्रहः [ गाथा ५८ २३२ ] भवति, तदैकजीवस्य सुखदुःखजीवितमरणादिके प्राप्ते तस्मिन्नेव क्षणे सर्वेषां जीवितमरणादिकं प्राप्नोति, न च तथा दृश्यते । अथवा ये वदन्ति यथै कोपि समुद्रः क्वापि क्षारजल: क्वापि मिष्टजलस्तथैकोऽपि जीवः सर्वदेहेषु तिष्ठतीति । तदपि न घटते । कथमिति चेत् — जलराश्यपेक्षया तत्रैकत्वं न च जलपुद्गलापेक्षया तत्रैकत्वम् । यदि जलपुद्गलापेचया भवत्येकत्वं तहिं स्तोकजले गृहीते शेषजलं सहैव किन्नायाति । ततः स्थितं षोडशवर्णिका सुवर्णराशिवदनन्तज्ञानादिलचणं प्रत्येकं जीवराशि प्रति, न चैकजीवापेक्षयेति । अध्यात्मशब्दस्यार्थः कथ्यते । मिथ्यात्वरागादिसमस्त विकल्पजालरूपपरिहारेण स्वशुद्धात्मन्यधि यदनुष्ठानं तदध्यात्ममिति । एवं ध्यानसामग्रीव्याख्यानोपसंहाररूपेण गाथा गता ।। ५७ ।। अथौद्धत्यपरिहारं कथयति : दव्वसंगहमिणं मुणिणाहा दोससंचयचुदा सुदपुराणा । सोधयंतु त सुत्तधरेण मिचन्दमुणिणा भणियं जं ॥ ५८ ॥ (दर्पणों में मुख- प्रतिबिम्ब चेतन नहीं हैं), यदि अनेक शरीरों में एक ही जीव हो तो, एक जीव को सुख-दुःख-जीवन-मरण आदि प्राप्त होने पर, उसी क्षण सब जीवों को सुख-दुःखजीवन-मरण आदि प्राप्त होने चाहियें; किन्तु ऐसा देखने में नहीं आता । अथवा जो ऐसा कहते हैं कि, 'जैसे एक ही समुद्र कहीं तो खारे जल वाला है, कहीं मीठे जल वाला है, उसी प्रकार एक ही जीव सब देहों में विद्यमान है' सो यह कहना भी घटित नहीं होता । प्रश्नक्यों नहीं घटित होता ? उत्तर - समुद्र में जलराशि की अपेक्षा से एकता है, जल- पुद्गलों (करणों) की अपेक्षा से एकता नहीं है । यदि जलपुद्गलों की अपेक्षा से एकता होती ( एक अखंड द्रव्य होता ) तो समुद्र में से थोड़ा जल ग्रहण करने पर शेष जल भी उसके साथ ही क्यों न आता । इस कारण यह सिद्ध हुआ कि सोलह-वानी के सुवर्ण की राशि के समान अनंतज्ञान आदि लक्षण की अपेक्षा जीवराशि में एकता है और एक जीव की ( समस्त जीवराशि में एक ही जीव है, इस) अपेक्षा से जीवराशि में एकता नहीं है । अब 'अध्यात्म' शब्द का अर्थ कहते हैं । मिध्यात्व - राग आदि समस्त विकल्प समूह के त्याग द्वारा निज-शुद्ध- आत्मा में जो अनुष्ठान ( प्रवृत्ति का करना ), उसको 'अध्यात्म ' कहते हैं । इस प्रकार ध्यान की सामग्री के व्याख्यान के उपसंहार रूप से यह गाथा समाप्त हुई || ५७ || अब ग्रन्थकार अपने अभिमान के परिहार के लिये छन्द कहते हैं : गाथार्थ :- अल्पज्ञान के धारक मुझ नेमिचन्द्र मुनि ने जो यह द्रव्यसंग्रह कहा है, दोषों से रहित और ज्ञान से पूर्ण ऐसे आचार्य इसका शोधन करें । For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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