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________________ गाथा ५३ ] तृतीयोऽधिकारः [२१५ जो रयएत्तयजुत्तो णिच्चं धम्मोवदेसणे हिरदो। सो उवज्झोओ अप्पा जदिवरखसहो णमो तस्स ॥ ५३॥ यः रत्नत्रययुक्तः नित्यं धर्मोपदेशने निरतः। सः उपाध्यायः आत्मा यतिवरवृषभः नमः तस्मै ॥५३॥ व्याख्या--'जो रयणत्तयजुत्तो' योऽसौ बाह्यम्यन्तररत्नत्रयानुष्ठानेन युक्तः परिणतः । 'पिच्चं धम्मोवदेसणे हिरदो' षद्रव्यपञ्चास्तिकायसप्ततवनवपदार्थेषु मध्ये स्वशुद्धात्मद्रव्यं स्वशुद्धजीवास्तिकायं स्वशुद्धात्मतत्वं स्वशुद्धात्मपदार्थमेवोपादेयं शेषं च हेयं, तथैवोत्तमक्षमादिधर्म च नित्यमुपदिशति योऽसौ स नित्यं धर्मोपदेशने निरतो भएयते । 'सो उवज्झाओ अप्पा' स चेत्थंभूत आत्मा उपाध्याय इति । पुनरपि किं विशिष्टः १ 'जदिवरवसहो' पञ्चेन्द्रियविषयजयेन निजशुद्धात्मनि यत्नपराणां यतिवराणां मध्ये वृषभः प्रधानो यतिवरवृषभः । णमो तस्स' तस्मै द्रव्यभावरूपो नमो नमस्कारोऽस्तु । इत्युपाध्यायपायेष्ठिव्याख्यान रूपेण गाथा गता ॥ ५३॥ अथ निश्चयरत्नत्रयात्मकनिश्चयध्यानस्य परम्परया कारणभूतं बाह्या गाथार्थ :-जो रत्नत्रय से सहित, निरन्तर धर्म का उपदेश देने में तत्पर तथा मुनीश्वरों में प्रधान है, वह आत्मा उपाध्याय है । उसके लिये नमस्कार हो ॥ ५३ ॥ वृत्त्यर्थ :-"जो रयणत्तयजुत्तो” जो बाह्य, आभ्यन्तर रत्नत्रय के अनुष्ठान (साधन) से युक्त हैं (निश्चय-व्यवहार-रत्नत्रय को साधने में लगे हुए हैं )। "णिच्च धम्मोवदेसणे णिरदो” 'छः द्रव्य, पांच अस्तिकाय, सात तत्त्व व नव पदार्थों में निज-शुद्ध-आत्मद्रव्य, निज-शुद्ध-जीवास्तिकाय, निज-शुद्ध-आत्मतत्व और निज-शुद्ध-आत्मपदार्थ ही उपादेय है, अन्य सब हेय हैं। इस विषय का तथा उत्तम क्षमा आदि दश धर्मों का जो निरन्तर उपदेश देते हैं, वे नित्य धर्मोपदेश देने में तत्पर कहलाते हैं । “सो उवभाओ अप्पा” इस प्रकार की वह आत्मा उपाध्याय है। उसमें और क्या विशेषता है ? “जदिवरवसहो" पाँचों इन्द्रियों के विषयों को जीतने से निज-शुद्ध-आत्मा में प्रयत्न करने में तत्पर, ऐसे मुनीश्वरों में वृषभ अर्थात् प्रधान होने से यतिवृषम हैं। "णमो तस्स" उन उपाध्याय परमेष्ठी को द्रव्य तथा भावरूप नमस्कार हो । इस प्रकार उपाध्याय परमेष्ठी के व्याख्यान से गाथासूत्र पूर्ण हुआ ।। ५३ ॥ अब निश्चयरत्नत्रयस्वरूप-निश्चयध्यान का परम्परा से कारणभूत, बाह्य-अभ्यन्तर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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