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________________ २१४] वृहद्रव्यसंग्रहः [गाथा २ चारः । ३ । समस्तपरद्रव्येण्याविरोधेन तथैवानशनादिद्वादशतपश्चरणबहिरङ्गसहकारिकारणेन च स्वस्वरूपे प्रतपनं विजयम निश्चयतपश्चरणं, ताचरणं परिणमनं निश्चयतपश्चरणाचारः । ४ । तस्यैव निश्चयचतुर्विधाचारस्य रक्षणार्थ स्वशक्त्यनवगृहनं निश्चयवीर्याचारः । ५ । इत्युक्तलक्षणनिश्चयपञ्चाचारे तथैव "छत्तीसगुणसमग्गे पंचविहाचारकरणसन्दरिसे । सिस्साणुग्गहकुसले धम्मायरिए सदा वंदे ।१।" इति गाथाकथितक्रमेणाचाराराधनादिचरणशास्त्रविस्तीर्णबहिरङ्गसहकारिकारणभूते व्यवहासचाचारे च स्वं परं च योजयत्यनुष्ठानेन सम्बधं करोति स आचार्यो भवति । स च पदस्थध्याने ध्यातव्यः । इत्याचार्यपरमेष्ठिव्याख्यानेन सूत्रं गतम् ॥५२॥ __ अथ स्वशुद्धात्ममि शोभनमध्यायोऽभ्यासो निश्चयस्वाध्यास्तन्लक्षणनिश्चयध्यानस्य पारम्पर्येण कारणभूतं भेदाभेदरत्नत्रयादितचोपदेशक- परमोपाध्यायभक्तिरूपं 'प्रमो उक्झायाण' इति पदोच्चारणलक्षणं. यत् पदस्थध्यान, तस्व ध्येयमताप्राध्यायमुनीश्वरं कथयति है । ३ । समस्त परद्रव्यों की इच्छा के रोकने से तथा अनशन आदि बारह-तप-रूप-बहिरंगसहकारीकारण से जो निज स्वरूप में प्रतपन अर्थात् विजयन, वह निश्चयतपश्चरण है; उसमें जो आचरण अर्थात् परिणमन निश्चयतपश्वरणाचार है ।४। इन चार प्रकार के निश्चय आचार की रक्षा के लिये अपनी शक्ति का नहीं छिपाना, निश्चयवीर्याचार है।५। ऐसे उक्त लक्षणों वाले पाँच प्रकार के निश्चय आचार में और इसी प्रकार, "छत्तीस गुणों से सहित, पांच प्रकार के आचार को करने का उपदेश देने वाले तथा शिष्यों पर अनुग्रह (कृपा) रखने में चतुर जो धर्माचार्य हैं उनको मैं सदा वंदना करता हूं। १।" इस गाथा में कहे अनुसार प्राचार आराधना आदि चरणानुयोग के शास्त्रों में विस्तार से कहे हुए बहिरङ्गसहकारीकारणरूप पांच प्रकार के व्यवहार आचार में जो अपने को तथा अन्य को लगाते हैं (स्वयं उस पंचाचार को साधने हैं और दूसरों से सधाते हैं) वे आचार्य कहलाते हैं। वे प्राचार्य परमेष्ठी पदस्थध्यान में ध्यान करने योग्य हैं। इस प्रकार आचार्य परमेष्ठी के व्याख्यान से गाथासूत्र समाप्त हुआ ॥ ५२ । अब निज शुद्ध श्रात्मा में जो उत्तम अध्ययन अर्थात् अभ्यास करना है, उसको निश्चय स्वाध्याय कहते हैं । उस निश्चयस्वाध्यायरूप निश्चयध्यान के परम्परा से कारणभूत भेद-अभेद-रत्नत्रय आदि तत्त्वों का उपदेश करनेवाले, परम उपाध्याय की भक्तिस्वरूप "णमो उवभाया" इस पद के उच्चारणरूप जो पदस्थध्यान उसके ध्येयभूत, ऐसे उपाध्याय परमेष्ठी के स्वरूप को कहते हैं : Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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