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________________ २१२] वृहद्रव्यसंग्रहः [ गाथा ५१ निश्चयनयेनातीन्द्रियामूर्तपरमचिदुच्छलननिर्भरशुद्धस्वभावेन निराकारोऽपि व्यवहारेण भूतपूर्वनयेन किञ्चिदूनचरमशरीराकारेण गतसिक्थमृषागर्भाकारवच्छायाप्रतिमावद्वा पुरुषाकारः । 'अप्पा' इत्युक्तलक्षण आत्मा । किं भण्यते ? 'सिद्धो' अञ्जनसिद्धपादुकासिद्धगुटिकासिद्धखगसिद्धमायासिद्धादिलौकिकसिद्धविलक्षणः केवलज्ञानाद्यनन्तगुणव्यक्तिलक्षणः सिद्धो भण्यते । 'झाएह लोयसिहरत्थो' तमित्थंभूतं सिद्धपरमेष्ठिनं लोकशिखरस्थं दृष्टश्रुतानुभूतपञ्चेन्द्रियभोगप्रभृतिसमस्तमनोरथरूपनानाविकल्पजालत्यागेन त्रिगुप्तिलक्षणरूपातीतध्याने स्थित्वा ध्यायत हे भव्या यूयम् इति । एवं निष्कलसिद्धपरमेष्ठिव्याख्यानेन गाथा गता ॥ ५१ ॥ ___ अथ निरुपाधिशुद्धात्मभावनानुभत्यविनाभतनिश्चयपश्चाचारलक्षणस्य निश्चयध्यानस्य परम्परया कारणभतं निश्चयव्यवहारपञ्चाचारपरिणताचार्यभक्तिरूपं 'णमो आयरियाणं' इति पदोच्चारणलक्षणं यत्पदस्थध्यानं तस्य ध्येयभूतमाचार्यपरमेष्ठिनं कथयति : तीन कालवर्ती सर्व पदार्थ सम्बन्धी विशेष तथा सामान्य भावों को एक ही समय में जानने और देखने से, लोकालोक को जानने-देखनेवाले हैं। "पुरिसायारो" निश्चयनय की दृष्टि से इन्द्रियागोचर-अमूर्तिक-परमचैतन्य से भरे हुए शुद्ध-स्वभाव की अपेक्षा आकार रहित हैं; तो भी व्यवहार से भूतपूर्व नय की अपेक्षा अंतिम शरीर से कुछ कम आकार वाले होने के कारण, मोमरहित मूस के बीच के आकार की तरह अथवा छाया के प्रतिबिंब के समान, पुरुषाकार है । "अप्पा" पूर्वोक्त लक्षणवाली आत्मा; वह क्या कहलाती है ? 'सिद्धो' अञ्जनसिद्ध, पादुकासिद्ध, गुटिकासिद्ध, खडगसिद्ध और मायासिद्ध आदि लोकिक (लोक में कहे जानेवाले) सिद्धों से विलक्षण केवलज्ञान आदि अनंत गुणों की प्रकटतारूप सिद्ध कहलाती हैं । “झाएह लोयसिहरत्थो” हे भव्यजनो! तुम देखे-सुने-अनुभव किये हुए जो पाँचों इन्द्रियों के भोग आदि समस्त मनोरंथरूप अनेक विकल्प-समूह के त्याग द्वारा मनवचन-काय की गुप्तिस्वरूप रूपातीत ध्यान में स्थिर होकर, लोक के शिखर पर विराजमान पूर्वोक्त लक्षणवाले सिद्ध परमेष्ठी को ध्यावो ! इस प्रकार अशरीरी सिद्ध परमेष्टी के व्याख्यानरूप यह गाथा समाप्त हुई ॥ ५१ ॥ . अब उपाधि रहित शुद्ध-आत्मभावना की अनुभूति ( अनुभव ) का अविनाभूत निश्चय-पंच-आचार-रूप-निश्चय-ध्यान का परम्परा से कारणभूत, निश्चय तथा व्यवहार इन दोनों प्रकार के पाँच आचारों में परिणत (तत्पर वा तल्लीन ) ऐसे आचार्य परमेष्ठी की भक्तिरूप और "णमो आयरियाणं" इस पद के उच्चारण-रूप जो पदस्थ ध्यान, उस पदस्थ• ध्यान के ध्येयभूत आचार्य परमेष्टी के स्वरूप को कहते हैं : Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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