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तृतीयोऽधिकारः
गाथा ५१ ]
[ २११
अथ सिद्धसदृशनिजपरमात्मतत्व परमसमरसीभावलक्षणस्य रूपातीतनिश्चयध्यानस्य पारम्पर्येण कारणभूतं मुक्तिगतसिद्धभक्तिरूपं ' णमो सिद्धाणं' इति पदोच्चारणलक्षणं यत्पदस्थं ध्यानं तस्य ध्येयभूतं सिद्धपरमेष्ठीस्वरूपं कथयति :
कम्मदेहो लोयालोयस्स जाओ दट्ठा । पुरिसायारो अप्पा सिद्धो झाएह लोयसिहरत्थो || ५१ ॥
नष्टाष्टकर्म्मदेहः लोकालोकस्य ज्ञायकः द्रष्टा । पुरुषाकारः आत्मा सिद्धः ध्यायेत लोकशिखरस्थः ॥ ५१ ॥
व्याख्या- 'कम्मदेहो' शुभाशुभमनोवचनकायक्रियारूपस्य द्वतशब्दाभिधेयकर्मकाण्डस्य निर्मूलनसमर्थेन स्वशुद्धात्मतत्स्वभावनोत्पन्नरागादिविकल्पोपाधिरहितपरमाह्लादैकलक्षण सुन्दरमनोहरानन्दस्यंदिनिः क्रियाद्व तशब्दवाच्येन परमज्ञानकाण्डेन विनाशितज्ञानावरणाद्यष्टकमदारिकादिपञ्च देहत्वात् नष्टाष्टक र्मदेहः । 'लोयालोयस्स जाणओदट्ठा' पूर्वोक्तज्ञानकाण्डभावनाफलभूतेन सकलविमलकेवलज्ञानदर्शनद्वयेन लोकालोकगतत्रिकालवर्त्तिसमस्तवस्तुसम्बन्धिविशेषसामान्यस्वभावानामेकसमयज्ञायकदर्शकत्वात् लोकालोकस्य ज्ञाता द्रष्टा भवति । 'पुरिसायारो'
सिद्धों के समान निज-परमात्म-तत्त्व में परमसमरसी-भाव वाले रूपातीत नामक निश्चय-ध्यान के परम्परा से कारणभूत तथा मुक्ति को प्राप्त, ऐसे सिद्ध परमेष्ठी की भक्तिरूप ‘णमो सिद्धाणं' इस पद के उच्चारणरूप लक्षण वाला जो पदस्थ ध्यान, उसके ध्येयभूत सिद्धपरमेष्ठी के स्वरूप को कहते है :
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गाथार्थ :- अष्ट कर्म रूपी शरीर को नष्ट करने वाली, लोकालोक-आकाश को जाननेदेखने वाली, पुरुषाकार, लोक- शिखर पर विराजमान, ऐसी आत्मा सिद्ध-परमेष्ठी है । अतः तुम सब उन सिद्ध परमेष्ठी का ध्यान करो ।। ५१ ॥
वृत्त्यर्थ :- 'ट्ठट्ठकम्मदेहो' शुभ-अशुभ मन-वचन और काय की क्रिया रूप तथा द्वैत शब्द के अभिधेयरूप कर्म समूह का नाश करने में समर्थ, निज-शुद्ध-आत्म-स्वरूप की भावना से उत्पन्न, रागादि विकल्परूप उपाधि से रहित, परम आनन्द एक लक्षण वाला, सुन्दर - मनोहर - आनन्द को बहाने वाला, क्रियारहित और अद्वैत शब्द का वाच्य, ऐसे परमज्ञानकांड द्वारा ज्ञानावरण आदि कर्म एवं औदारिक आदि पांच शरीरों को नष्ट करने से, जो नष्ट- अष्ट - कर्म - देह है । 'लोयालोयस्स जाओ दट्ठा' पूर्वोक्त ज्ञानकांड की भावना के फलस्वरूप पूर्ण निर्मल केवलज्ञान और दर्शन दोनों के द्वारा लोकालोक के
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