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________________ २०८ ] वृहद्रव्यसंग्रहः [ गाथा ५० भवतामनुपलब्धिः, किं जगत्त्रयकालत्रयवर्तिपुरुषाणां वा ? यदि भवतामनुपलब्धिस्तावता सर्वज्ञाभावो न सिध्यति, भवद्भिरनुपलभ्यमानानां परकीयचित्तवृत्तिपरमाण्वादिसूक्ष्मपदार्थानामिव । अथवा जगत्त्रयकालत्रयवर्तिपुरुषाणामनुपलब्धिस्तत्कथं ज्ञातं भवद्भिः । ज्ञातं चेत्तर्हि भवन्त एव सर्वज्ञा इति पूर्वमेव भणितं तिष्ठति । इत्यादिहेतुदूषणं ज्ञातव्यम् । यथोक्तं खरविषाणवदिति दृष्टान्तवचनम् तदप्यनुचितम् । खरे विषाणं नास्ति गवादौ तिष्ठतीत्यत्यन्ताभावो नास्ति यथा तथा सर्वज्ञस्यापि नियतदेशकालादिष्वभावेऽपि सर्वथा नास्तित्वं न भवति इति दृष्टान्तदूषणं गतम् । अथ मतं--सर्वज्ञविषये बाधकप्रमाणं निराकृतं भवद्भिस्तर्हि सर्वज्ञसद्भावसाधकं प्रमाणं किम् ? इति पृष्टे प्रत्युत्तरमाह-कश्चित् पुरुषो धर्मी, सर्वज्ञो भवतीति साध्यते धर्मः, एवं धर्मिधर्मसमुदायेन पक्षवचनम् । कस्मादिति चेत्, पूर्वोक्तप्रकारेण बाधकप्रमाणाभावादिति हेतुवचनम् । किंवत्, स्वयमनुभूयमानसुखदुःखादिवदिति दृष्टान्तवचनम् । एवं सर्वज्ञसद्भावे पक्षहेतुदृष्टान्तरूपेण व्यङ्गमनुमानं जगत् तीन काल के पुरुषों के अनुपलब्धि है। यदि आपके ही सर्वज्ञ की अनुपलब्धि है, तो इतने मात्र से सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध नहीं होता; क्योंकि, जैसे पर के मनोविचार तथा परमाणु आदि की आपके अनुपलब्धि है, तो भी उनका अभाव सिद्ध नहीं होता । यदि तीन जगत् तीन काल के पुरुषों के 'सर्वज्ञ' की अनुपलब्धि है, तो इसको आपने कैसे जाना ? यदि कहो 'जान लिया' तो आप ही सर्वज्ञ हुए, ऐसा पहले कहा जा चुका है। इस प्रकार से 'हेतु' में दूषण जानना चाहिए। सर्वाज्ञ के अभाव की सिद्धि में जो 'गधे के सींग' का दृष्टान्त दिया था, वह भी ठीक नहीं है । गधे के सींग नहीं हैं, किन्तु गौ आदि के सींग हैं। सींग का जैसे अत्यन्त (सर्वाथा) अभाव नहीं, वैसे ही 'सर्वाज्ञ' का विवक्षित देश व काल में अभाव होने पर भी सर्वाथा अभाव नहीं है । इस प्रकार दृष्टान्त में दूषण आया । प्रश्न-आपके द्वारा सर्वाज्ञ के सम्बन्ध में बाधक प्रमाण का तो खंडन हुआ, किन्तु सर्वाज्ञ के सद्भाव को सिद्ध करने वाला क्या प्रमाण है ? ऐसा पूछे जाने पर उत्तर देते हैं'कोई पुरुष (आत्मा) साज्ञ है', इसमें 'पुरुष' धर्मी है और 'सर्गज्ञता', जिसको सिद्ध करना है, वह धर्म है; इस प्रकार 'धर्मी धर्म समुदाय' को पक्ष कहते हैं (जिसको सिद्ध करना वह साध्य अर्थात् धर्म है । जिसमें धर्म पाया जावे या रहे, वह धर्मी है। धर्म और धर्मी दोनों मिलकर 'पक्ष' कहलाते हैं)। इसमें हेतु क्या है ? पूर्वोक्त अनुसार 'बाधक प्रमाण का अभाव' यह हेतु है । किसके समान? अपने अनुभव में आते हुए सुख-दुःख आदि के समान, यह दृष्टान्त है । इस प्रकार सर्वाज्ञ के सद्भाव में पक्ष, हेतु तथा दृष्टान्त रूप से तीन अंगों का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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