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________________ गाथा ५० ] तृतीयोऽधिकारः [२०७ पलब्धिः, सर्वदेशे काले वा । यदत्र देशेऽत्र काले नास्ति तदा सम्मत एव । अथ सर्वदेशकाले नास्तीति भण्यते तज्जगत्त्रयं कालत्रयं सर्वज्ञरहितं कथं ज्ञातं भवता। ज्ञातं चेत्तर्हि भवानेव सर्वज्ञः । अथ न ज्ञातं तर्हि निषेधः कथं क्रियते । तत्र दृष्टान्तः-यथा कोऽपि निषेधको घटस्याधारभूतं घटरहितं भूतलं चक्षुषा दृष्ट्वा पश्चाद्वदत्यत्र भूतले घटो नास्तीति युक्तम् ; यस्तु चक्षुः रहितस्तस्य पुनरिदं वचनमयुक्तम् । 'तथैव यस्तु जगत्त्रयं कालत्रयं सर्वज्ञरहितं जानाति तस्य जगत्त्रये कालत्रयेऽपि सर्वज्ञो नास्तीति वक्तु युक्तं भवंति, यस्तु जगत्त्रयं कालत्रयं जानाति स सर्वज्ञनिषेधं कथमपि न करोति । कस्मादिति चेत् १ जगत्त्रयकालत्यपरिज्ञानेन स्वयमेव सर्वज्ञत्वादिति । अथोक्तमनुपलब्धेरिति हेतुवचनं तदप्ययुक्तम् । करमादिति चेत्-किं सनज्ञ की प्राप्ति क्या इस देश और इस काल में नहीं है या सब देश और सब काल में नहीं है । यदि कहो कि, इस देश और इस काल में सर्वाज्ञ नहीं है, तब तो ठीक ही है, क्योंकि हम भी ऐसा मानते हैं। यदि कहो सर्व देश और सर्ग कालों में सर्वाज्ञ नहीं है, तो तुमने यह कैसे जाना कि तीनों लोक और तीनों काल में सर्वाज्ञ का अभाव है। यदि कहो कि अभाव जान लिया, तो तुम ही सर्वज्ञ हो गये (जो तीन लोक तथा तीन काल के पदार्थों को जानता है वही सर्वज्ञ है. सो तुमने यह जान ही लिया है कि तीनों लोक और तीनों कालों में सर्वाज्ञ नहीं है, इसलिये तुम ही सर्वाज्ञ सिद्ध हुए)। 'तीन लोक व तीनों काल में सर्वाज्ञ नहीं' इसको यदि नहीं जाना तो 'सर्वाज्ञ नहीं है' ऐसा निषेध कैसे करते हो? दृष्टान्त-जैसे कोई निषेध करने वाला, घट की आधारभूत पृथ्वी को नेत्रों से घट रहित देख कर, फिर कहे कि 'इस पृथ्वी पर घट नहीं है, तो उसका यह कहना ठीक है; परन्तु जो नेत्रहीन है, उसका ऐसा वचन ठीक नहीं है । इसी प्रकार जो तीन जगत् , तीन काल को सर्वज्ञ रहित जानता है, उसका यह कहना कि तीन जगत् तीन काल में सर्वज्ञ नहीं, उचित होसकता है; किंतु जो तीन जगत् तीन काल को जानता है, वह सर्वज्ञ का निषेध किसी भी प्रकार नहीं कर सकता । बन्यों नहीं कर सकता ? तीन जगत् तीन काल को जानने से वह स्वयं सर्वज्ञ होगया, अतः वह सर्वाज्ञ का निषेध नहीं कर सकता। - सर्वाज्ञ के निषेध में 'सर्वज्ञ की अनुपलब्धि' जो हेतु वाक्य है, वह भी ठीक नहीं। क्यों ठीक नहीं ? उत्तर यह है- क्या आपके ही सर्वज्ञ की अनुपलब्धि (अप्राप्ति) है या तीन १ तथा योसो जगत्त्रयं कालत्रय सर्वज्ञरहितं प्रत्यक्षेण जानाति स एव सर्वज्ञनिषेधे समर्थो, न चान्यो न्ध इव, यस्तु जगत्त्रयं कालत्रयं जानाति स सर्वज्ञनिषेधं कथमपि न करोति । कस्मात् ? जगत्त्रयकालत्रयविषयपरिज्ञान सहितत्वेन स्वमेव सर्वज्ञत्वादिति । (पंचास्तिकाय तात्पर्य वृत्तिः गा० २६) २ 'न जानाति' इति पाठान्तरं। ३ "किं भवतामनुपलब्धेः जगत्त्रय' इति पाठान्तरं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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