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________________ १८६] वृहद्रव्यसंग्रहः [ गाथा ४४ वरणद्वयं भण्यते, तत्र तिष्ठन्तीति छमस्थाः। एवं तर्काभिप्रायेण सत्तावलोकनदर्शनं व्याख्यातम् । अत उचं सिद्धान्ताभिप्रायेण कथ्यते । तथाहि-उत्तरज्ञानोत्पत्तिनिमि यत् प्रयत्नं तद्रूपं यत् स्वस्यात्मनः परिच्छेदनमवलोकनं तद्दर्शनं भण्यते । तदनन्तरं यद्बहिर्विषये विकल्परूपेण पदार्थगृहणं तद्ज्ञानमिति वार्तिकम् । यथा कोऽपि पुरुषो घटविषयविकल्पं कुर्वन्नास्ते, पश्चात् पटपरिज्ञानार्थ चिरे जाते सति घटविकल्पाद्व्यावर्त्य यत् स्वरूपे प्रयत्नमवलोकनं परिच्छेदनं करोति तदर्शनमिति । तदनन्तरं पटोऽयमिति निश्चयं यद्वहिर्विषयरूपेण पदार्थगृहणविकल्पं करोति तद् ज्ञानं भण्यते। अत्राह शिष्यः-यद्यात्मगाहकं दर्शनं, परगाहकं ज्ञानं भण्यते, तर्हि यथा नैयायिकमते ज्ञानमात्मानं न जानाति; तथा जैनमतेऽपि ज्ञानमात्मानं न जानातीति दूषणं प्राप्नोति । अत्र परिहारः । नैयायिकमते ज्ञानं पृथग्दर्शनं पृथगिति गुणद्वयं नास्ति; तेन कारणेन तेषामात्मपरिज्ञानाभावदूषणं प्राप्नोति । जैनमते पुनर्ज्ञानगुणेन परद्रव्यं जानाति दर्शनगुणेनात्मानं च जानातीत्यात्मपरि हैं, उस छद्म में जो रहते हैं वे छद्मस्थ है । इस प्रकार तर्क के अभिप्राय से सत्तावलोकनरूप दर्शन का व्याख्यान किया। इसके आगे सिद्धान्त के अभिप्राय से कहते हैं। तथा-आगे होने वाले ज्ञान की उत्पत्ति के लिये जो प्रयत्न, उस रूप अथवा निज-आत्मा का जो परिच्छेदन अर्थात् अवलोकन, वह दर्शन कहलाता है। उसके अनन्तर बाह्य विषय में विकल्परूप से जो पदार्थ का ग्रहण है, वह ज्ञान है; यह वार्तिक है । जैसे कोई पुरुष पहले घट विषयक विकल्प करता हुआ स्थित है, पश्चात् उसका चित्त पट को जानने के लिये होता है तब वह पुरुष घट के विकल्प से हट कर स्वरूप में जो प्रयत्न-अवलोकन-परिच्छेदन करता है; उसको दर्शन कहते हैं। उसके अनन्तर 'यह पट है' ऐसा निश्चय अथवा बाह्य विपयरूप से पदार्थ के ग्रहणरूप जो विकल्प होता है उस विकल्प को ज्ञान कहते हैं। प्रश्न-वहाँ शिष्य पूछता है, यदि अपने को ग्रहण करनेवाला दर्शन और पर-पदार्थ को ग्रहण करनेवाला ज्ञान है; तो नैयायिकों के मत में जैसे ज्ञान अपने को नहीं जानता है वैसे ही जैनमत में भी ज्ञान आत्मा को नहीं जानता है; ऐसा दूषण आता है ? शङ्का का परिहार नैयायिक मत में ज्ञान और दर्शन अलग-अलग दो गुण नहीं हैं, इस कारण उन नैयायिकों के मत में 'आत्मा को जानने के अभावरूप' दूषण आता है । किन्तु जैन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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