SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 206
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ १८५ गाथा ४४] तृतीयोऽधिकारः इति सन्निकर्षों वक्तव्यः । स एव सम्बन्धो लक्षणं यस्य तल्लक्षणं यन्निर्विकल्पं सत्तावलोकनदर्शनं तत्पूर्व शुक्लमिदमित्याद्यवग्रहादिविकल्परूपमिन्द्रियानिन्द्रियजनितं मतिज्ञानं भवति । इत्युक्तलक्षणमतिज्ञानपूर्वकं तु धूमादग्निविज्ञानवदर्थादर्थान्तरग्रहणरूपं लिङ्गजं, तथैव घटादिशब्दश्रवणरूपं शब्दजं चेति द्विविधं श्रुतज्ञानं भवति । अथावधिज्ञानं पुनरवधिदर्शनपूर्वकमिति । ईहामतिज्ञानपूर्वकं तु मन:पर्ययज्ञानं भवति । अत्र श्रुतज्ञानमनःपर्पयज्ञानजनकं यदवगृहेहादिरूपं मतिज्ञानं भणितम् , तदपि दर्शनपूर्वकस्वादुपचारेण दर्शनं भण्यते, यतस्तेन कारणेन श्रुतज्ञानमन:पर्ययज्ञानद्वयमपि दर्शनपूर्वकं ज्ञातव्यमिति । एवं छमस्थानां सावरणक्षयोपशमिकज्ञानसहितत्वात् दर्शनपूर्वकं ज्ञानं भवति । केवलिनां तु भगवतां निर्विकारस्वसम्वेदनसमुत्पन्ननिरावरणक्षायिकज्ञानसहितत्वान्निर्मेघादित्ये युगपदातपप्रकाशवदर्शनं ज्ञानं च युगपदेवेति विज्ञेयम् । छमस्था इति कोऽर्थः ? छद्मशब्देन ज्ञानदर्शना इन्द्रिय पदार्थ का वह सम्बन्ध अथवा सन्निकर्ष जिसका लक्षण है; ऐसे लक्षणवाला निर्विकल्पक-सत्तावलोकन दर्शन है, उस दर्शनपूर्वक 'यह सफेद है' इत्यादि अवग्रह आदि विकल्परूप तथा पांचों इन्द्रियों व अनिन्द्रिय मन से उत्पन्न होने वाला मतिज्ञान है। उक्त लक्षण वाले मतिज्ञान पूर्वक, धुयें से अग्नि के ज्ञान के समान, एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ को ग्रहण करनेरूप लिंगज (चिन्ह से उत्पन्न होनेवाला) तथा इसी प्रकार घट आदि शब्दों के सुननेरूप शब्दज (शब्द से उत्पन्न होनेवाला), ऐसे दो प्रकार का श्रुतज्ञान होता है (श्रतज्ञान दो तरह का है-लिंगज और शब्दज । उनमें से एक पदार्थ को जानकर उसके द्वारा दूसरे पदार्थ को जानना, वह लिंगज श्रुतज्ञान है । शब्दों को सुनने से जो पदार्थ का ज्ञान होता है वह शब्दज श्रुतज्ञान है)। अवधि-दर्शन पूर्वक अवधिज्ञान होता है । ईहा मतिज्ञान पूर्वक मनःपर्ययज्ञान होता है। यहां श्रुतज्ञान को और मनःपर्ययज्ञान को उत्पन्न करनेवाला अवग्रह, ईहा आदिरूप मतिज्ञान कहा है, वह मतिज्ञान भी दर्शनपूर्वक होता है, इसलिये वह मतिज्ञान भी उपचार से दर्शन कहलाता है । इस कारण श्रुतज्ञान और मनःपर्ययज्ञान, इन दोनों को भी दर्शनपूर्वक जानना चाहिये । इस प्रकार छद्मस्थ जीवों के सावरण क्षायोपशमिक-ज्ञान होने से, दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है । केवली भगवान् के निर्विकार स्वसंवेदन से उत्पन्न निरावरण क्षायिक ज्ञान होने से, बद्दल हट जाने पर सूर्य के युगपत् आतप और प्रकाश के समान, दर्शन और ज्ञान ये दोनों युगपत् होते हैं, ऐसा जानना चाहिये । प्रश्न-'छद्मस्थ' शब्द का क्या अर्थ है ? उत्तर-छद्म' शब्द से ज्ञानावरण तथा दर्शनावरण ये दोनों कर्म कहे जाते Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy