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________________ १४६ ] वृहद्र्व्यसंग्रहः [गाथा ३५ चर्यानिषद्याशय्याक्रोशवधयाचनालाभरोगतृणस्पर्शमलसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाज्ञानादर्शनानीति द्वाविंशतिपरीषहा विज्ञेयाः। तेषां क्षुधादिवेदनानां तीब्रोदयेऽपि सुखदुःखजीवितमरणलाभालाभनिंदाप्रशंसादिसमतारूपपरमसामायिकेन नवतरशुभाशुभकर्मसंवरणचिरंतनशुभाशुभकर्मनिर्जरणसमर्थनायं निजपरमात्मभावनासंजातनिर्विकारनित्यानंदलक्षणसुखामृतसंविचेरचलनं स परीषहजय इति । अथ चारित्रं कथयति । शुद्धोपयोगलक्षणनिश्चयरत्नत्रयपरिणते स्वशुद्धात्मस्वरूपे चरणमवस्थानं चारित्रम् । तच्च तारतम्यभेदेन पञ्चविधम् । तथाहिसर्वे जीवाः केवलज्ञानमया इति भावनारूपेण समतालक्षणं सामायिकम् , अथवा परमस्वास्थ्यबलेन युगपत्समस्तशुभाशुभसङ्कल्पविकल्पत्यागरूपसमाधिलक्षणं वा, निर्विकारस्वसंवित्तिबलेन रागद्वेषपरिहाररूपं वा, स्वशुद्धात्मानुभूतिबलेना”रौद्रपरित्यागरूपं वा, समस्तसुखदुःखादिमध्यस्थरूपं चेति । अथ छेदोपस्थापनं कथयति-- यदा युगपत्समस्तविकल्पत्यागरूपे परमसामायिके स्थातुमशक्तोऽयं जीवस्तदा मशक (डांस-मच्छर) ५; नग्नता ६; अरति ७; स्त्री ८; चर्या ६; निषद्या (बैठना) १०, शय्या ११; आक्रोश १२; वध १३; याचना १४; अलाभ १५; रोग १६; तृणस्पर्श १७; मल १८; सत्कारपुरस्कार १६; प्रज्ञा (ज्ञान का मद) २०; अज्ञान २१ और अदर्शन २२ । ये बाईस परीषह जानने चाहिए। इन क्षुधा आदि वेदनाओं के तीव्र उदय होने पर भी सुख-दुःख, जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, निंदा-प्रशंसा आदि में समता रूप परम सामायिक के द्वारा तथा नवीन शुभ-अशुभ कर्मों के रुकने और पुराने शुभ-अशुभ कर्मों की निर्जरा को सामर्थ से इस जीव का, निज परमात्मा की भावना से उत्पन्न, विकार रहित, नित्यानंदरूप सुखामृत अनुभव से, जो नहीं चलना सो परीषहजय है । अब चारित्र का वर्णन करते हैं। शुद्ध उपयोग लक्षणात्मक निश्चय रत्नत्रयमयी परिणतिरूप आत्मस्वरूप में जो आचरण या स्थिति, सो चारित्र है। वह तारतम्य भेद से पांच प्रकार का है । तथा-सब जीव केवल ज्ञानमय हैं, ऐसी भावना से जो समता परिणाम का होना सो सामायिक है । अथवा परम स्वास्थ्य के बल से युगपत् समस्त शुभ, अशुभ संकल्प विकल्पों के त्यागरूप जो समाधि (ध्यान ), वह सामायिक है। अथवा निर्विकार आत्म-अनुभव के बल से राग द्वष परिहार (त्याग) रूप सामायिक है। अथवा शुद्ध आत्मअनुभव के बल से आतरौद्र ध्यान के त्याग स्वरूप सामायिक है । अथवा समस्त सुख-दुःखों में मध्यस्थ भावरूप सामायिक है । अब छेदोपस्थापन का कथन करते हैं-जब एक ही साथ समस्त विकल्पों के त्यागरूप परम सामायिक में स्थित होने में यह जीव असमर्थ होता है, तब 'समस्त हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म तथा परिग्रह से विरति सो व्रत है' इन पांच प्रकार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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