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________________ गाथा ३५ ] द्वितीयोऽधिकारः [ १४५ सहमानः सन् भ्रमितोऽयं जीवः । यदा पुनरेवंगुणविशिष्टस्य धर्मस्य लाभो भवति तदा राजाधिराजार्द्धमाण्डलिक महामण्डलिक वलदेव वासुदेव कामदेव सकल चक्रवर्त्तिदेवेन्द्रगाधरदेवतीर्थंकरपरमदेवप्रथम कल्याणत्रयपर्यन्तं विविधाभ्युदयसुखं प्राप्य पश्चादभेदरत्नत्रत भावनाबले नाक्षयानन्तसुखादिगुणास्पदमर्हत्पदं सिद्धपदं च लभते । तेन कारणेन धर्म एव परमरसरसायनं निधिनिधानं कल्पवृक्षः कामधेनुश्चिन्तामणिरिति । किं बहुना, ये जिनेश्वरप्रणीतं धर्मं प्राप्य दृढम्मतयो जातास्त एव धन्याः । तथा चोक्तम् “धन्या ये प्रतिबुद्धा धर्मे खलु जिनवरैः समुपदिष्टे । ये प्रतिपन्ना धर्म स्वभावनोपस्थितमनीषाः । १।" इति संक्षेपेण धर्मानुप्रेक्षा समाप्ता । १२ । इत्युक्तलक्षणा अनित्याशरणसंसारै कत्वान्यत्वाशुचित्वासवसंवरनिर्जरालोकधिदुर्लभधर्मतत्वानुचिन्तनसंज्ञा निरासुवशुद्धात्मत स्वपरिणतिरूपस्य संवरस्य कारणभूता द्वादशानुप्रेक्षाः समाप्ताः । अथ परीषहजयः कथ्यते - क्षुत्पिपासाशीतोष्णा दंशमशकनाज्यारतिस्त्री 'लाख योनि' इस गाथा में कही हुई चौरासी लाख योनियों में, अतीत अनन्त काल तक परिभ्रमण किया है । जब इस जीव को पूर्वोक्त प्रकार के धर्म की प्राप्ति होती है तब राजा - धिराज, महाराज, अर्धमण्डलेश्वर, महामण्डलेश्वर, बलदेव, नारायण, कामदेव, चक्रवर्ती, देवेन्द्र, गणधरदेव, तीर्थंकर परमदेव के पदों तथा तीर्थकरों के गर्भ - जन्म तप कल्याणक तक अनेक प्रकार के वैभव सुखों को पाकर, तदनन्तर अभेद रत्नत्रय की भावना के बल से अक्षय अनन्त गुणों के स्थानभूत अरहंत पद को और सिद्ध पद को प्राप्त होता है । इस कारण धर्म ही परम रस के लिये रसायन, निधियों की प्राप्ति के लिये निधान, कल्प वृक्ष. कामधेनु गाय और चिन्तामणि रत्न है। विशेष क्या कहें, जो जिनेन्द्रदेव के कहे हुए धर्म को पाकर दृढ़ बुद्धिधारी ( सम्यग्दृष्टि) हुए हैं वे ही धन्य हैं । सो ही कहा है - " जिनेन्द्र के द्वारा उपदिष्ट धर्म से जो प्रतिबोध को प्राप्त हुए वे धन्य हैं तथा जिन आत्मानुभव में संलग्न बुद्धि वालों ने धर्म को ग्रहण किया वे सब धन्य हैं । १ ।" इस प्रकार संक्षेप से धर्मानुप्रेक्षा समाप्त हुई | १२ | इस प्रकार पूर्वोक्त लक्षरण वाली, अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्मतत्त्व के अनुचिंतन संज्ञा (नाम) वाली और आस्रवरहित - शुद्ध - आत्मतत्व में परिणतिरूप संवर की कारणभूत बारह अनुप्रेक्षा समाप्त हुईं । अब परीषह - जय का कथन करते हैं - क्षुधा १, प्यास २; शीत ३; उष्ण ४, दंश For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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