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________________ १३४] वृहद्र्व्य संग्रह [ गाथा ३५ - अत ऊर्ध्व ज्योतिर्लोकः कथ्यते । तद्यथा-चन्द्रादित्यग्रहनक्षत्राणि प्रकीर्णतारकाश्चेति ज्योतिष्कदेवाः पञ्चविधा भवन्ति । तेषां मध्येऽस्माद्भमितलादुपरि नवत्यधिकसप्तशतयोजनान्याकाशे गत्वा तारकविमानाः सन्ति, ततोऽपि योजनदशकं गत्वा सूर्यविमानाः, ततः परमशीतियोजनानि गत्वा चन्द्रविमानाः, ततोऽिप त्रैलोक्यसारकथितक्रमेण योजनचतुष्टयं गते अश्विन्यादिनक्षत्रविमानाः, ततः परं योजन चतुष्टयं गत्वा बुधविमानाः, ततः परं योजनत्रयं गत्वा शुक्रविमाना:, ततः परं योजनत्रये गते बृहस्पतिविमानाः, ततो योजनत्रयानन्तरं मङ्गलविमानाः, ततोऽपि योजनत्रयानन्तरं शनैश्चरविमाना इति । तथा चोक्तं "उदुत्तरसत्तसया दस सीदी चउदुगं तु तिचउक्कं । तारारविससिरिक्खा बुहभग्गवअंगिरारसणी ।१।" ते च ज्योतिष्कदेवा अर्धतृतीयद्वीपेषु निरंतर मेरोः प्रदक्षिणेन परिभ्रमणगतिं कुर्वन्ति । तत्र घटिकाप्रहरदिवसादिरूपः स्थूलव्यवहारकालः समयनिमिषादिसूक्ष्मव्यवहारकालवत् यद्यप्यनादिनिधनेन समयपटिकादिविवक्षितविकल्परहितेन कालाणुद्रव्यरूपेण निश्चयकालेनोपादानभूतेन जन्यते तथापि चन्द्रादित्यादिज्योतिष्कदेवविमानगमनागमनेन कुम्भकारेण निमित्तभतेन मृत्पिण्डोपादानजनितघट इव व्यज्यते प्रकटीक्रियते ज्ञायते तेन कारणेनोपचारेण ज्योतिष्कदेवकृत इत्य इसके पश्चात् ज्योतिष्कलोक का वर्णन करते हैं। चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, प्रकीर्णकतारा ऐसे ज्योतिष्क देव पांच प्रकार के होते हैं। उनमें से इस मध्य लोक की पृथ्वीतल से सात सौ नब्बे योजन ऊपर आकाश में तारों के विमान हैं, तारों से दस योजन ऊपर सूर्य के विमान हैं। उससे अस्सी योजन ऊपर चन्द्रमा के विमान हैं। उसके अनंतर, त्रैलोक्यसार कथित क्रमानुसार, चार योजन ऊपर अश्विनी आदि नक्षत्रों के विमान हैं। उसके पश्चात् चार योजन ऊपर बुध के विमान हैं। उसके अनंतर तीन योजन ऊपर शुक्र के विमान है । वहाँ से तीन योजन ऊपर वृहस्पति के विमान है । उसके पश्चात् तीन योजन पर मंगल के विमान हैं । वहाँ से भी तीन योजन के अन्तर पर शनैश्चर के विमान हैं। सोही कहा है-"सात सौ नब्बे, दस, अस्सी, चार, चार, तीन, तीन, तीन और तीन योजन ऊपर क्रम से तारा, सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, बुध, शुक्र, वृहस्पति, मंगल और शनैश्वर के विमान हैं। १।" वे ज्योतिष्क देव ढाई द्वीप में मेरु की प्रदक्षिणा देते हुए सदा परिभ्रमण करते हैं। समय निमिष आदि सूक्ष्म व्यवहार काल के समान घटिका प्रहर दिवस आदि स्थूल व्यवहार काल भी, समय-घटिका आदि विवक्षित भेदों से रहित तथा अनादिनिधन कालाणुद्रव्यमयी निश्चयकाल रूप उपादान से यद्यपि उत्पन्न होता है; तो भी, निमित्तभूत कुम्भकार के द्वारा उपादान रूप मृत्तिकापिंड से धट प्रगट होने की तरह, उन ढाई द्वीप में चन्द्र सूर्य आदि ज्योतिष्क देवों के विमानों के गमनागमन से यह व्यवहार काल प्रगट किया जाता है तथा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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