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गाथा ३५ ] द्वितीयोऽधिकारः
. [१३१ सहितो लवणसमुद्रोऽस्ति । तस्मादपि बहिर्भागे योजनलक्षचतुष्टयक्लयविष्कम्भो धातकीखण्डद्वीपोऽस्ति । तत्र च दक्षिणभागे लपणोदधिकालोदधिसमुद्रद्वयवेदिकास्पर्शी दक्षिणोत्तरायामः सहसयोजनविष्कम्भः शतचतुष्टयोत्सेध इक्ष्वाकारनामपर्वतः अस्ति । तथोत्तरविभागेऽपि । तेन पर्वतद्वयेन खण्डीकृतं पूर्वापरधातकीखण्डद्वयं ज्ञातव्यम् । तत्र पूर्वधातकीखण्डद्वीपमध्ये चतुरशीतिसहस्रयोजनोत्सेधः सहस्त्रयोजनावगाहः क्षुल्लकमेरुरस्ति । तथा पश्चिमघातकीखण्डेऽपि । यथा जम्बूद्वीपमहामेरोः भरतादिक्षेत्रहिमवदादिपर्वतगङ्गादिनदीपञ्चादिहदानां दक्षिणोत्तरेण व्याख्यानं कृतं तथात्र पूर्वधातकीखएडमेरौ पश्चिमघातकीखण्डमेरौ च ज्ञातव्यम् । अत एव जम्बूद्वीपापेक्षया संख्या प्रति द्विगुणानि भवन्ति भरतक्षेत्राणि, न च विस्तारायामापेक्षया । कुलपर्वताः पुनर्विस्तारापेक्षयैव द्विगुणा, नत्वायामं प्रति । तत्र धोतकीखण्डद्वीपे यथा चक्रस्यारास्तथाकाराः कुलपर्वता भवन्ति । यथा चाराणां विवराणि छिद्राणि मध्यान्यभ्यन्तरे सङ्कीर्णानि बहिर्भागे विस्तीर्णानि तथा क्षेत्राणि ज्ञातव्यानि ।
इत्थंभूतं धातकीखण्डद्वीपमष्टलक्षयोजनवलयविष्कम्भः कालोदकसमुद्रः
योजन जल की ऊंचाई आदि अनेक आश्चर्यों सहित लवण समुद्र है; उसके बाहर चार लाख योजन गोल विस्तार वाला धातकी खंड द्वीप है । वहाँ पर दक्षिण भाग में लवणोदधि और कालोदधि इन दोनों समुद्रों की वेदिका को छूने वाला, दक्षिण-उत्तर लम्बा, एक हजार योजन विस्तार वाला तथा चार सौ योजन ऊंचा इक्ष्वाकार नामक पर्नत है। इसी प्रकार उत्तर भाग में भी एक इक्ष्वाकार पर्वत है । इन दोनों पर्वतों से विभाजित, पूर्ण धातकीखंड तथा पश्चिम धातकीखंड ऐसे दो भाग जानने चाहिये । पूर्ण धातकीखंड द्वीप के मध्य में चौरासी हजार योजन ऊंचा और एक हजार योजन गहरा छोटा मेरु है। उसी प्रकार पश्चिम धातकीखंड में भी एक छोटा मेरु है। जैसे जंबू द्वीप के महामेरु में भरत आदि क्षेत्र, हिमवत् आदि पर्वत, गंगा आदि नदी और पद्म आदि हृदों का दक्षिण व उत्तर दिशाओं सम्बन्धि व्याख्यान किया है; जैसे ही इस पूर्ण धातकीखंड के मेरु और पश्चिम धातकी खंड के मेरु सम्बन्धि जानना चाहिये । इसी कारण धातकीखंड में जंबू द्वीप की अपेक्षा संख्या में भरत क्षोत्र आदि दूने होते हैं, परन्तु लम्बाई चौड़ाई की अपेक्षा से दुगुने नहीं हैं। कुल पर्वत तो विस्तार की अपेक्षा ही दुगुने हैं, आयाम (लम्बाई) की अपेक्षा दुगुने नहीं हैं। उस धातकीखंड द्वीप में, जैसे चक्र के आरे होते हैं, जैसे आकार के धारक कुलाचल हैं । जैसे चक्र के प्रारों के छिद्र अन्दर की ओर तो संकीर्ण (सुकड़े) होते हैं और बाहर की ओर विस्तीर्ण (फैले हुए) होते हैं, वैसा ही क्षेत्रों का आकार समझना चाहिये ।
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