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________________ गाथा ३५ ] द्वितीयोऽधिकारः [१२५ वर्तते तथैवैरावते च । अयन्तु विशेषः, भरतैरावतम्लेच्छखण्डेषु विजयार्धनगेषु च चतुर्थकालसमयाद्यन्ततुल्यकालोऽस्ति नापरः । किं बहुना, यथा खट्वाया एकमागे ज्ञाते द्वितीयभागस्तथैव ज्ञायते तथैव जम्बूद्वीपस्य क्षेत्रपर्वतनदीहदादीनां यदेव दक्षिणविभागे व्याख्यानं तदुत्तरेऽपि विशेयम् । __ अथ देहममत्वमूलभूतमिथ्यात्वरागादिविभावरहिते केवलज्ञानदर्शनसुखोद्यनन्तगुणसहिते च निजपरमात्मद्रव्ये यया सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रभावनया कृत्वा विगतदेहा देहरहिताः सन्तो मुनयः प्राचुर्येण यत्र मोक्षं गच्छन्ति स विदेहो भण्यते । तस्य जम्बूद्वीपस्य मध्यवर्तिनः किमपि विवरणं क्रियते । तद्यथा-नवनवतिसहस्रयोजनोत्सेध एकसहस्रावगाह आदौ भूमितले दशयोजनसहस्रवृत्तविस्तार उपयु परि पुनरेकादशांशहानिक्रमेण हीयमानत्वे सति मस्तके योजनसहस्रविस्तार आगमोक्ताकृत्रिमचैत्यालयदेववनदेवावासाद्यागमकथितानेकाश्चर्यसहितो विदेहक्षेत्रमध्ये महामेरु म पर्वतोस्ति । स च गजो जातस्तस्मान्मेरुगजात्सकाशादुत्तरमुखे दन्तद्वयाकारेण यन्निर्गतं पर्वतद्वयं तस्य गजदन्तद्वयसंशेति, तथोत्तरे भागे नील परमागम में कही गई है, उन सहित, दशकोट।कोटि सागर प्रमाण, अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल भरत जैसे ही ऐरावत् में भी होते हैं। इतना विशेष है, भरत ऐरावत के म्लेच्छ खण्डों में और विजयार्ध पर्वात में चतुर्थ काल की आदि तथा अन्त के समान काल वर्तता है, अन्य काल नहीं वर्तता । विशेष क्या कहें, जैसे खाट का एक भाग जान लेने पर उसका दूसरा भाग भी उसी प्रकार समझ लिया जाता है; उसी तरह जम्बूद्वीप के क्षेत्र, नदी, पर्वत और हृद आदि का जो दक्षिण दिशा सम्बन्धो व्याख्यान है वही उत्तर दिशा सम्बन्धी जानना चाहिये। ___ अब शरीर में ममत्व के कारणभूत मिथ्यात्व तथा राग आदि विभावों से रहित और केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्त सुख आदि अनन्त गुणों से सहित निज परमात्म द्रव्य में सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूप भावना करके, मुनिजन जहां से विगतदेह अर्थात् देहरहित होकर अधिकता से मोक्ष प्राप्त करते हैं उनको विदेह कहते हैं । जम्बूद्वीप के मध्य में स्थित विदेह क्षेत्र का कुछ वर्णन करते हैं । निन्यानवै हजार योजन ऊंचा, एक हजार योजन गहरा और आदि में भूमितल पर दस हजार योजन गोल विस्तार वाला तथा ऊपर ऊपर ग्यारहवें भाग हानि क्रम से घटते घटते शिखर पर एक हजार योजन विस्तार का धारक और शास्त्र में कहे हुए अकृत्रिम चैत्यालय, देववन तथा देवों के आवास आदि नाना प्रकार के आश्चर्यों सहित ऐसा महामेरुनामक पर्वत विदेह क्षेत्र के मध्य में है, वही मानों गज (हाथी) हुआ, उस मेरुरूप गज से उत्तर दिशा में दो दन्तों के आकार से जो दो पर्वत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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