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________________ १३६ १४१ १५७ विषय-सूची] वृहद्रव्यसंग्रहः विषय पृष्ठ विषय 'चक्रवर्ती' सूर्य में जिनविम्ब के दर्शन १३५ सम्यग्दृष्टि का वीतराग-विशेषण क्यों १५१ नक्षत्रों का कथन १३६ जितने अंशों में राग उतना बंध १५२ दिवस में हानि वृद्धि १३७ सरागी का भेदविज्ञान निरर्थक १५२ ऊर्द्धलोक-कथन व स्वर्गों के नाम १३८ दिव्य व भाव मोक्ष १५२ वार्तिक का लक्षण १३८ परमात्मा का सुख १५३ स्वर्गों के उत्सेध व इन्द्र संसारी जीवों के भी अतीन्द्रिय सुख १५४ मोक्ष-शिला व सिद्ध स्थान १३६, १४० निरन्तर कर्म बंध व उदय, मोक्ष कैसे १५४ स्वर्गपटल व विमान संख्या १४० श्रात्मा संबंधी नौ दृष्टांत १५५ सौधर्म सम्बंधी विमान १४१ | निरंतर मोक्ष किंतुसंसार जीवशून्य नहीं १५६ देवों की आयु पुण्य-पाप. शुभ-अशुभोपयोग १५६ निश्चय लोक १४२ पुण्य प्रकृतियों के नाम पाप का लक्षण १४३ षोडशभावना व सम्यक्त्व की मुख्यता १५७ वोधि-दुर्लभ अनुप्रेक्षा १४३ तीन मूढ़ता आदि २५ दोष १५८ मनुष्य आदि की उत्तरोत्तर दुर्लभता १४३ | श्रागम-अध्यात्म से सम्यक्त्व का लक्षण १५८ विषय कषायादि की बहुलता १४३ भक्ति व पुण्य से परमात्मपद की प्राप्ति १५८ वोधि व समाधि का लक्षण १४४ | सम्यग्दृष्टि का स्वर्ग में जीवन । धर्म अनुप्रेक्षा व धर्म का लक्षण १४४ मिथ्यादृष्टि का पुण्य बंध १५४ ८४ लाख योनि १४४ भेदाभेद रत्नत्रय के धारक गणधर १५६ धर्म से अभ्युदय सुख । तीसरा अधिकार १६०-२३४ परीषह जय . १४६ व्यवहार व निश्चय मोक्षमार्ग १६० चारित्र, उसके भेद व लक्षण निश्चयव व्यवहारमोक्षमार्गसाध्यसाधक१६१ कौन चारित्र किस गुणस्थान में १४७ निश्चय मोक्षामार्ग शुभोपयोगरूपव्यवहाररत्नत्रय से पापसंवर१४८ रत्नत्रयमयी आत्मा ही मोक्ष का कारण १६१ शुद्धोपयोगरूप निश्चयरत्नत्रय से पुण्य-पाप । निश्चयाँसम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र १६२ का संवर १४८ व्यवहार सम्यग्दर्शन संवर में असमर्थों के लिये व्रत आदि १४८ सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान को कारण १६३ ३६३ मतों के नाम १४६ गौतमगणधर,अग्निभूत,वायुभूतकीकथा१६४ योग-कषाय से बंध, अकषाय से अबंध १४६ | अभव्यसेन मुनि १६५ द्रव्यभाव व सविपाक-अविपाक निर्जरा १४६ | सम्यक्त्व बिना तप आदि वृथा १६५ अंतरंग बहिरंगतप-स्वरूप व साध्य साधन १५० देवमूढ़ता, लोकमूढ़ता समयमूढ़ता १६५ निर्जरा संवर पूर्वक १५१ निश्चय से तीन मूढ़ रहितता १६६ सराग सन्यग्दृष्टि की निर्जरा से अशुभ- आठ मद १६७ कर्मनाश,संसारस्थिति छेद,परंपरामोक्ष १५१ | ममकार व अहंकार का लक्षण १६७, १७२ वीतराग सम्यग्दृष्टि की निर्जरा १५१ | यह अनायतन, अनायतन का अर्थ १६७ १५६ १३१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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