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________________ IV ] वृहद्रव्यसंग्रहः [विषय-सूची विषय पृष्ठ | विषय दस धर्मों का विशेष कथन __EE ७ वें नरक वाला पुनः नरक जाता है ११८ भावशुद्धि आदि आठ शुद्धि १०० नरक के दुख ११८ अध्र व अनुप्रेक्षा १०३ | तिर्यग लोक का कथन ११६ अशरण अनुप्रेक्षा द्वीपसमुद्रों का आकार, विस्तार, संख्या ११६ निश्चयरत्नत्रयकाकारण परमेष्ठिआराधना१०४ आवास, भवन व पुर का लक्षण १२० संसारानुप्रेक्षा व पंचपरावर्तन १०४ व्यंतर-भवनवासी की भवन-संख्या १२० स्वर्ग से चयकर मोक्ष जाने वाले जीव १०५ मनुष्यलोक का कथन १२० नित्यनिगोदिया कभी त्रस नहीं होंगे १०७ जम्बूद्वीप के क्षेत्र, पर्वत, हृद व नदी १२१ एकत्व अनुप्रेक्षा १८८ क्षेत्र, पर्वत व ह्रद के अर्थ १२१ 'शरीर' शब्द का अर्थ व स्वरूप १०८ भरतक्षेत्र का प्रमाण १२४ निज-शुद्धात्मभावना से चरमशरीरी को मोक्ष, पर्वत, क्षेत्र व ह्रदों का प्रमाण . १२४ अचरम को स्वर्ग व परम्परा से मोक्ष१०८,१०६ उत्तर दिशा के क्षेत्र, पर्वत, नदी १२४ अन्यत्व अनुप्रेक्षा १०६ विजयाध व म्लेक्ष खंडों में चतुर्थकाल १२५ अशुचि अनुप्रेक्षा ११० विदेह शब्द का अर्थ १२५ ब्रह्मचारी सदा पवित्र ११० सुमेरु पर्वत का कथन १२५ जन्म से शूद्र, क्रिया से द्विज ब्राह्मण ११० गजदन्त, यमकगिरि, सुवर्णपर्वत १२६ संयमरूपी जलभरी आत्म-नदी में स्नान ११० भोगभूमि के भोग, सुख, कल्पवृक्ष १२६ आस्रवानुप्रेक्षा,इंद्रिय,कषाय,अव्रत,क्रिया १११ निश्चय-व्यवहाररत्नत्रय केधारक उत्तमपात्र१२६ . संवर अनुप्रेक्षा __. ११२ आहारदान का फल १२६ निर्जरा अनुप्रेक्षा निर्जरा में जिन-वचन कारण विदेह क्षेत्र का विशेष कथन . १२७ 'पूर्ण' का प्रमाण १३० दुखी धर्म में तत्पर होता है लवणसमुद्र में १६००० योजनजल ऊँचाई१३० संवेग व वैराग्य का लक्षण | धातकी खंड १३१ लोक अनुप्रेक्षा ११३-१४३ | पर्वत व क्षेत्रों के आकार लोक का आकार व विस्तार, वातवलय ११३ | कालोदक समुद्र व पुष्करवर द्वीप १३२ त्रसनाड़ी, ऊर्ध-अधोलोक की ऊँचाई ११४ मानुषोत्तर पर्वात अधोलोक, नरक, बिल संख्या ११४ मनुष्य व तियेच आयु का प्रमाण १३३ ७ पृथ्वियों की मोटाई व विस्तार ११५ | स्वयंभूरमण द्वीप में नागेन्द्र पर्वात १३३ चित्रापृथिवी, पंक खर व अब्बहुल भाग ११५ असंख्यात द्वीपों में जघन्य भोगभूमि १३३ खर व पंक भागों में देवों का निवास ११६ | | अंतिम द्वीप व समुद्र में कर्मभूमि १३३ नरकों में पटल व बिले ११६ मध्यलोक में अकृत्रिम चैत्यालय १३३ नरकों में शरीर की ऊँचाई व आयु ११७ । ज्योतिष्क लोक १३४ नरक संबंधी गति आगति ११८ 'निमित्त' चन्द्र, सूर्य व कुम्भकार १३४ प्रत्येक नरक में उत्पन्न होने के वार ११८ ! चन्द्र और सूर्य का चार क्षेत्र १३५ ११२ ११३ ११३ १३१ १३२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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